आज इस पोस्ट में हम आपको बिहार बोर्ड Class 11th Hindi काव्यखंड का तीसरा चैप्टर मीराबाई के पद का सम्पूर्ण भावार्थ, मीराबाई का जीवन परिचय और मीराबाई के पद का प्रश्न उत्तर भी बताने वाले हैं |Bihar board Class 11th Hindi Chapter Mirabai ke Pad
मीरा बंधन काटकर बाहर आती है-सड़क पर, तो एक साथ कई बंधन टूटते हैं-पहला अंतःपुर का, दूसरा घराने का, तीसरा वैभव का, चौथा समाज का, पाँचवा देश का, छठा काल का और सातवाँ विवाह का तब कहीं एक राजरानी की मुक्ति होती है। मीरा की निर्भयता, उसकी दीवानगी एक तरह से नारी-स्वातंत्र्य का ही नहीं, मनुष्य की स्वाधीनता का शंखनाद है। भले ही इसका केंद्र भक्ति हो, लेकिन उसमें सारे लक्षण आजादी के हैं।" - प्रभाकर श्रोत्रिय
3. मीराबाई
कवयित्री - परिचय
जीवन-परिचय: कृष्ण भक्त कवियों में सूरदास के पश्चात् कवयित्री मीराबाई को उच्च स्थान प्राप्त है। मीराबाई के जन्म तथा मृत्यु के बारे में बहुत मतभेद पाए जाते हैं। एक अनुमान के अनुसार उनका जन्म 1504 ई. में तथा मृत्यु 1558-63 के बीच में हुई।
मीरा, राठौर रत्नसिंह की इकलौती संतान थी। बचपन से ही इनका ध्यान कृष्ण भक्ति में लग गया था। इनका विवाह महाराणा सांगा के कुँबर भोज राजा से हुआ था, लेकिन दुर्भाग्यवश आठ-दस वर्ष बाद ही इनके पति की मृत्यु हो गयी। विधवा मीरा का मन राज घरानों की चमक-दमक और चहल-पहल में न रम सका। परिणामस्वरूप ये मंदिरों में जाकर साधु-सन्तों की संगति में रहने लगीं। मीरा ने कृष्ण को अपना पति माना और उन्हीं के विरह के पद गाने लगीं। देवर द्वारा अनेक असहनीय कष्ट दिए जाने पर भी मीरा अपने भक्ति-मार्ग से टस से मस न हुई और कृष्ण का कीर्तन करते-करते पूरी कृष्णमय हो गई। वस्तुतः वे हिन्दी-साहित्य में एक महान विभूति थीं।
काव्यगत रचनाएँ : मीराबाई अधिक पढ़ी-लिखी नहीं थीं परन्तु साधु-संतों की संगति में रहने के कारण उन्हें व्यापक ज्ञान प्राप्त हो गया था। उन्होंने अपने प्रियतम कृष्ण के प्रेम की भक्ति में झूमते और नाचते हुए जो कुछ भी अपने मुख से निकाला, वही एक मधुर गीत बन गया। नरसी जी का मायरा, राम सोरठा तथा राग गोविन्द मीरा की प्रमुख रचनाएँ हैं। मीरा जी ने अपने पदों में ब्रज-राजस्थानी मिश्रित लोक भाषा का प्रयोग किया, जो लोकप्रिय होते-होते साहित्यिक भाषा बन गई। इन्होंने अपने पदों और गीतों की गीत शैली में रचना की।
काव्यगत विशेषताएँ : मीरा की भक्ति कांता भाव की माधुर्य-पूर्ण भक्ति थी। इनके पदों और गीतों में भगवान के प्रति आत्म-समर्पण की भावना विद्यमान है। वेदना की तीव्र अनुभूति के कारण उनका प्रत्येक गीत श्रोता के हृदय पर सीधा प्रभाव डालता है। सामाजिक रूढ़ियों का तीखा विरोध होते हुए भी उनकी कविता में भारतीय संस्कृति की सुन्दर झलक दिखाई देती है। वास्तव में, मीराबाई कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम रखने वाली एक विख्यात कवयित्री थीं।
पद-1
तोसों प्रीत तोड़ कृष्ण! कौन संग जोडूं ।।
तुम भये तरुवर मैं भई पंखिया।
तुम भये सरवर मैं तेरी मछिया ।।
तुम भये गिरिवर मैं भई चारा |
तुम भये चंदा में भई चकोरा ।।
तुम भये मोती, प्रभु हम भये धागा।
तुम भये सोना, हम भये सोहागा।।
मीरा कहे प्रभु ब्रज के बासी।
तुम मेरे ठाकुर मैं तेरी दासी।।
मीराबाई के प्रथम पद का शब्दार्थ निम्नलिखित है
शब्दार्थ:- तोसों - तुमसे , प्रीत - प्रेम , तरुबर - श्रेष्ठ, वृक्ष , पैखिया - पक्षी , सरवर - तालाब , मछलियां - मछली। गिरिवर - पर्वतराज ,सोहागा - सोने को शुद्ध करने के लिए प्रयुक्त क्षार , ठाकुर - स्वामी।
मीराबाई के प्रथम पद का प्रसंग :
प्रसंग : प्रस्तुत पद सगुण भक्तिधारा की कृष्णोपासक कवयित्री मीराबाई द्वारा रचित है। इस पद में मीरा का अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के प्रति बेपरवाह एकांतिक प्रेम वर्णित है। ये श्रीकृष्ण के प्रेम में मस्त हैं। मीरा का प्रेम मधुर भक्ति की पराकाष्ठा पर पहुँचता है।
मीराबाई के प्रथम पद का व्याख्या :
व्याख्या : कवयित्री मीरा जी श्रीकृष्ण के प्रेम में दीवानी हैं। यह कहती हैं-हे कृष्ण, तुम चाहे मुझसे प्रेम करो या नहीं, मैं तो पूर्णतया तुम्हें ही समर्पित हूँ अर्थात् वह कृष्ण को ही अपना प्रियतम मान चुकी हैं। प्रश्नोत्तर शैली में मीरा कृष्ण से कहती हैं- हे प्रियतम, तुम्हारे साथ प्रीत की डोरी तोड़कर में किसके साथ जोडू? कहने का भाव यह है कि तुम बिना मेरा कोई नहीं। मीरा श्रीकृष्ण और अपने संबंध को विभिन्न उदाहरणों द्वारा सत्यापित करते हुए कहती हैं कि हे कृष्ण! यदि तुम एक पेड़ हो तो मैं उस पेड़ की डाल पर बैठकर उसका आश्रय लेकर जीने वाला पक्षी हूँ। अगर तुम तालाब हो तो में उस तालाब के पानी में जीने वाली मछली हूँ। अगर तुम पर्वतराज हो तो मैं उसकी गोद में उगने वाली हरियाली हूँ। यदि तुम चंद्रमा हो तो मैं तुमको एकटक देखने वाला चकोर पक्षी हूँ। अगर तुम उज्ज्वल और निर्मल मोती हो तो मैं उस मोती को पिरोने वाला धागा हूँ। अगर तुम कीमती सोना हो तो मैं उसी सोने को शुद्ध करने के लिए प्रयोग होने वाला क्षार (सोहागा) हूँ। कवयित्री मीरा जी कहती हैं कि हे ब्रजवासी प्रभु, तुम ही मेरे स्वामी हो और मैं तुम्हारी सेविका हूँ। तुम चाहकर भी मुझसे सम्बन्ध नहीं तोड़ सकते। जीव और ब्रह्म का सम्बन्ध तथा भक्त और भगवान का सम्बन्ध शाश्वत एवं काल-निरपेक्ष होता है।
पद - 2
गिरधर म्हारो साँचो प्रीतम | देखत रूप लुभाऊँ ।।
रैण पड़े तब ही उठ जाऊँ। भोर भये उठ आऊँ ।।
रैण दिना वा के संग खेलूं। ज्यूँ त्यूँ ताही रिझाऊँ।।
जो पाहिरावे सोई पहिरूँ । जो दे सोई खाऊँ।
मेरी उण की प्रीत पुराणी। उण किन पल न रहाऊँ।।
जहाँ बैठावे तितहीं बैठूं बेचै तो बिक जाऊँ ।।
'मीरा' के प्रभु गिरधर नागर। बार बार बलि जाऊँ ।।
मीराबाई के दूसरा पद का शब्दार्थ निम्नलिखित है
शब्दार्थ - गिरिवर - गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले, कृष्ण | साँचो - सच्चा , रैण-रात। रेन दिना -- रात-दिन , वा के -- उसके , रिझाऊॅं - प्रसन्न करूँ। ज्यूँ -त्यूॅं – किसी भी तरह से , वाहि - उसे , पहिरायै -- पहनाए। बलि जाऊँ - न्योछावर हो जाऊँ , सोई - वही, तितही - वहीं , नागर- रसिक, विदग्ध - चतुर ।
प्रसंग : पूर्ववत् इस पद में मीरा की श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति तथा समर्पण भाव दृष्टिगोचर होता है। समर्पण भाव भी भक्ति के विविध रूपों में से एक है। अपने आराध्य को इच्छानुसार ही रहने तथा उस पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने के माध्यम से मीरा ने इस समर्पण भाव को व्यक्त किया है।
व्याख्या: कवयित्री मीरा कहती हैं कि मैं तो गिरधर (श्रीकृष्ण) के घर जाती हूँ। वही मेरा सच्चा प्रियतम है और मैं उसके रूप-सौंदर्य पर अत्यंत मुग्ध हूँ अर्थात् कृष्ण के रूप-सौन्दर्य ने मेरे मन में दर्शन करने का लोभ उत्पन्न कर दिया है, इसलिए मैं उसके प्रेम के वशीभूत होकर बार-बार उसके घर जाती है, रात होते ही मैं उसके घर जाने के लिए तत्पर हो उठती हूँ और सुबह होते ही यहाँ से वापस चली आती है, मैं दिन-रात उसके साथ खेलती रहती हूँ तथा हर प्रकार से प्रसन्न करने का प्रयत्न करती हूँ। अब तो यह मुझे जो भी पहनाए मैं केवल यही पहनी तथा जो भी खाने को दे ही खा लूँगी। कहने का आशय यह है कि अपनी तथा रूप-अरूप सभी से मुक्त होकर स्वयं को पूर्ण रूप से कृष्ण के प्रति समर्पित कर दिया है। मीरा इसी भाव को और ज्यादा स्पष्ट करते हुए कहती है कि मेरी और उनकी (श्रीकृष्ण) की प्रीत बहुत पुरानी है और जब में उनके बिना एक पल भी नहीं रह सकती। यह जहाँ मुझे बैठाना में यहीं बैठ जाऊंगी और यदि अगर यह मुझे बेचना भी चाहें तो खुशी-खुशी बिक जाऊँगी। मीरा आगे कहती है कि गिरधर नागर श्रीकृष्ण ही मेरे स्वामी हैं और मैं बार-बार उन पर न्योछावर होती हूँ।
अभ्यास प्रश्नोत्तर
प्रश्न. मीरा अपने सच्चे प्रीतम के साथ किस तरह रहने को तैयार हैं?
उत्तर- मीरा जी अपने सच्चे प्रीतम के साथ हर प्रकार की परिस्थिति में रहने के लिए तैयार हैं। जो खाने के लिए उसके प्रीतम के द्वारा दिया जाएगा उसी से मीरा अपनी भूख की तृप्ति करेगी, उसके प्रियतम कृष्ण उसे जो पहनने के लिए देंगे वही पहनने के लिए तैयार है जो स्थान रहने के लिए कृष्ण उसे देंगे वह वहीं निवास करेंगी और यदि वे बेच भी दें तब भी वह कृष्ण प्रदत्त इस नयी स्थिति में रह लेंगी।
प्रश्न 2. 'मेरी उन की प्रीत पुराणी उन बिन पत न रहाऊँ' का आशय स्पष्ट करें।
उत्तर- कृष्णभक्त मीरा की पंक्ति मेरी उण की रीत पुराणी, उण बिन पल न रहाऊँ यदि सामान्य अर्थ लिया जाए तो कहा जा सकता है कि भीरा और श्रीकृष्ण का प्रेम अत्यंत प्राचीन तथा पुराना है, और उनके बिना मीरा एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकती। इसका दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है यहाँ जीव व ब्रह्म का संबंध बताया गया है। जीव तथा ब्रह्म का संबंध शाश्वत है, जिसमें विरह का कोई स्थान नहीं है, प्रेम जब दीर्घजीवी हो जाता है तथा पूर्ण विश्वास पा लेता है, तब जीवन पूरी तरह प्रभु पर आश्रित हो जाता है। वास्तव में इस पंक्ति का अर्थ इतना मधुर, शाश्वत सत्य तथा प्रेरक है कि इसे जीव-ब्रह्म सम्बन्ध का सूत्रवाक्य कहें तो इसमें कोई अतिश्योक्ति न होगी।
प्रश्न 3. कृष्ण के प्रीत तोड़ने पर भी मीरा प्रीत तोड़ने को तैयार नहीं हैं, क्यों?
उत्तर- मीरा कहती है कि श्रीकृष्ण चाहे उससे प्रीत रखें या न रखें लेकिन यह तो उन्हें अपना सब कुछ मान चुकी है। उसे इस संसार में श्रीकृष्ण के अतिरिक्त सब कुछ व्यर्थ लगा, इसीलिए वह केवल और केवल श्रीकृष्ण को ही अपना प्रियतम मानने लगी। यहाँ लौकिक प्रेम न होकर अलौकिक प्रेम की व्यंजना हुई है। संसार में रहकर सांसारिक मोह-माया व बंधनों से उसे अनेक कष्ट हुए जब उसे जीवन सत्य का अहसास हुआ कि प्रभु के बिना सब कुछ झूठ है और इस संसार में ठगी के अतिरिक्त कुछ नहीं, तो उसने शाश्वत सत्य को ही अपनाने का प्रयत्न किया। इसीलिए मीरा प्रत्येक परिस्थिति में श्रीकृष्ण से ही प्रीत जोड़ने की बात कहती है।
प्रश्न 4. मीरा ने कृष्ण के लिए कौन-कौन-सी उपमाएँ दी हैं। वे कृष्ण की तुलना में स्वयं को किस रूप में प्रस्तुत करती है?
उत्तर- मीरा ने कृष्ण के लिए निम्नलिखित उपमानों का प्रयोग किया है-तरुवर (पेड़), गिरिवर (हिमालय पर्वत), सरवर (सरोवर), चन्दा (चन्द्रमा), मोती और सोना। कृष्ण की तुलना में मीरा ने स्वयं को क्रमश: पखिया (पारथी, पक्षी), चारा (घास), मछिया (मछली), चकोरा (चकोर, चक्रवाक पक्षी), धागा और सोहागा के रूप में प्रस्तुत किया है।
प्रश्न 5. 'तुम मेरे ठाकुर में तेरी दासी' में 'ठाकुर' का क्या अर्थ है?
उत्तर- इस पंक्ति में ठाकुर शब्द का अर्थ स्वामी, मालिक सर्वेश, सर्वस्व भर्तार, आदि है।
प्रश्न 6. पठित पद के आधार पर मीरा की भक्ति भावना का परिचय अपने शब्दों में दें।
उत्तर- भक्ति के क्षेत्र में मीरा की विचारधारा उनकी भावधारा से भिन्न नहीं थी। निर्गुण की महत्ता स्वीकार करती हुई भी वे अपने बचपन के आराध्य श्रीकृष्ण को नहीं भूल पाई। उनमें सगुण की आस्था और निर्गुण का ज्ञान दोनों मिश्रित हो गए थे। उन पर बाल्यकाल के संस्कार इतने ज्यादा हावी हो गए थे कि वे अपना प्रणय निवेदन मोर मुकुटधारी गिरिधर को ही कहती हैं, निराकर ब्रह्म को नहीं। उनका निर्गुण ब्रह्म भी सगुण कृष्ण से अलग नहीं है। उनकी भावानुभूति की प्रबल धारा में सगुण तथा निर्गुण दोनों का भेद समाहित हो जाता है। इस प्रकार दर्शन और तर्क की कसौटियाँ उनके लिए सर्वथा व्यर्थ हैं। मीरा श्रीकृष्ण के प्रेम में इतनी ज्यादा रम गई थीं कि जब उन्हें वृंदावन में आभास हुआ कि श्रीकृष्ण वृंदावन छोड़कर द्वारिका चले गए हैं तो वे भी द्वारिका धाम चली गई। यही पर भक्ति में लीन मीरा ने प्रभु पदों को गाते-गाते मन्दिर में ही अपने प्राण या दिए ।
प्रश्न 7. 'गिरिधर म्हारो साँचो प्रीतम' यहाँ साँघो विशेषण का प्रयोग मीरा ने क्यों किया है?
उत्तर- यह तथ्य सर्वविदित है कि मीरा का विवाह राणा खानदान में हुआ था। कृष्ण के प्रति इनकी दीवानगी को अपने वंश की प्रतिष्ठा पर कलंक मानकर राणा ने इन्हें विष पीने पर बाध्य कर दिया था। लेकिन कृष्ण की कृपा से मीरा के प्राण बच गए। इस पटना के बाद मीरा को अहसास हो गया कि श्री कृष्ण ही उसके सच्चे प्रीतम हैं ये उसकी हर हाल में सहायता करेंगे। उन्हीं से उसकी मुक्ति हो सकती है। इसीलिए मीरा ने कृष्ण के लिए सांचो विशेषण का प्रयोग किया है।
प्रश्न 8. मीरा की भक्ति लौकिक प्रेम का ही विकसित रूप प्रतीत होती है, कैसे? यह दोनों पदों के आधार पर स्पष्ट करें।
उत्तर- प्रेम के दो स्वरूप होते हैं- (1) जागतिक या सांसारिक प्रेम और (2) ईश्वरीय या आध्यात्मिक प्रेम
एक शायर ने भी कहा है- “हकीकी इश्क से पहल मजाजी इश्क होता है।" अर्थात ईश्वर से प्रेम करने अथवा होने से पूर्व सांसारिक प्रेम होता है। जो अपने सगे सम्बन्धियों से तथा अपने परिवेश से प्रेम नहीं कर पाएगा वह भला ईश्वर से क्या प्रेम करेगा। मीरा कृष्ण को 'पिया' संबोधन देती है। पिया अर्थात् पति। भारतीय समाज में पति-पत्नी के संबंध को अत्यन्त आदरणीय तथा सम्मानित स्थान प्राप्त है विशेषकर हिन्दू समाज में जहाँ कठिन से कठिन परिस्थिति में यह दाम्पत्य बन्धन अटूट बना रहता है। एक-दूसरे पर आश्रित होते हैं। मीरा का कृष्ण के प्रति निवेदन भी एक पत्नी के प्रणय निवेदन की जड़ ही है। फर्क सिर्फ इतना है कि कृष्ण यहाँ अलौकिक, परमपुरुष ब्रह्म स्वरूप हैं। जैसे एक पतिव्रता नारी हर हाल में अपने पति के प्रति एकनिष्ठा बनी रहती हैं संतुष्ट होती हैं यहाँ मीरा भी कृष्ण के प्रति ऐसी ही भावना व्यक्त करती हैं। इसलिए यह कहना समोचीन ही है कि मीरा की भक्ति लौकिक प्रेम का ही विकसित रूप है।
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बिहार बोर्ड Class 11th हिन्दी काव्यखंड Chapter - 02 कबीर के पद , कवि परिचय , भावार्थ और प्रश्न उत्तर
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