आज इस पोस्ट में हम आपको बिहार बोर्ड Class 11th Hindi काव्यखंड का पांचवां चैप्टर भारत दुर्दशा का सम्पूर्ण भावार्थ, भारतेंदु हरिश्चंद्र का जीवन परिचय और भारतेंदु हरिश्चंद्र के पद का प्रश्न उत्तर भी बताने वाले हैं ,Bihar board Class 11th Hindi Chapter Bharat durdasha bharatendu Harishchandra
"कहैंगे सबही नैन नीर भरि भरि पाछै
प्यारे हरिचंद की कहानी रह जायगी
- भारतेंदु
5. भारतेन्दु हरिश्चंद्र
कवि-परिचय
भारतेन्दु हरिश्चंद्र जीवन-परिचय:
- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म 9 सितम्बर सन् 1850 में काशी, उत्तर प्रदेश के एक वैष्णव परिवार में हुआ।
- किशोरावस्था में ही उन्होंने पराधीन भारत की दुर्दशा का अनुभव कर लिया था। उसी समय से उनके हृदय में देश-प्रेम तथा क्रांति चेतना की प्रबल भावना जाग्रत हो उठी। उन्होंने देश को इस अभिशाप से मुक्ति दिलाने का निश्चय किया और साहित्य साधना के द्वारा उसे रूपायित भी किया।
- हिन्दी साहित्य के इतिहास में भारतेन्दु हरिश्चंद्र आधुनिक काल के प्रवर्तक साहित्यकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। उनके युग का नाम उनके ही नाम पर ही भारतेन्दु युग रखा गया है। उन्होंने समकालीन साहित्यकारों, पत्रकारों और संस्कृतकर्मियों का नेतृत्व किया। उन्हें अनेक साहित्यिक विधाओं के श्रीगणेश का श्रेय प्राप्त है। उन्होंने बच्चों, स्त्रियों और सामान्य पाठकों के लिए हिंदी में कई पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित कीं।
- वे साहित्य में नवजागरण के अग्रदूत थे। उन्होंने साहित्य को नए विषय, नई रूप-चेतना, नए भावबोध, विचार, अभिव्यक्ति शैली और भाषा दी है। उस युग के साहित्य पर एक ऐसी छाप दिखाई देती है मानो एक ही लेखक सैकड़ों मुखों से बोल रहा हो और सैकड़ों हाथों से लिख रहा हो। इसके पीछे मुख्यतः भारतेंदु और उनके मित्र लेखकों की एकीभूत युगप्रेरणा ही रही है।
- 6 जनवरी 1885 को उनका देहावसान हो गया।
प्रमुख रचनाएँ :
(क) काव्य : प्रेम माधुरी, प्रेम तरंग, प्रेम सरोवर, वर्षा विनोद, विजय वल्लरी, जातीय संगीत आदि ।
(ख) नाटक : विद्यासुंदर, नीलदेवी, रत्नावली, भारत-दुर्दशा, सत्य हरिश्चंद्र, अंधेर नगरी, श्री चंद्रावली आदि। (ग) गद्य: वैष्णव सर्वस्व, स्वर्ग में विचार सभा, एक कहानी कुछ आपबीती कुछ जगबीती, जातीय संगीत आदि।
काव्यगत विशेषताएँ :
1. भारतेन्दु में देशभक्ति व ईश्वरभक्ति का अद्भुत, अद्वितीय संयोजन मिलता है। भारतेन्दु के काव्य का कोई भी पक्ष निर्बल नहीं है।
2. भारतेन्दु जी एक रचनात्मक राष्ट्रभक्त के रूप में सामने आते हैं, बलिदानी के रूप में नहीं ।
3. बल्लभ सम्प्रदाय के अनुयायी होते हुए भी इनके भक्ति वर्णन में व्यंग्य का स्वर प्रधान है।
4. शृंगार वर्णन के क्रम में भारतेन्दु ने राधा-कृष्ण की कलि-क्रीड़ाओं, नायिका भेद, नख-शिख वर्णन सब पर लेखनी चलाई है।
5. भारतेन्दु जी एक जनवादी कवि के रूप में हमारे सामने आते हैं।
भारत दुर्दशा
प्रथम प्रसंग
हा हा! भारत-दुर्दशा न देखी जाई ।।
सबके पहिले जेहि ईश्वर धन बल दीनो ।
सबके पहिले जेहि सभ्य विधाता कीनो ।।
सबके पहिले जो रूप रंग रस भीनो।
सबके पहिले विद्याफल जिन गहि लीनो ।।
अब सबके पीछे सोई परत लखाई ।
हा हा ! भारत दुर्दशा न देखी जाई।।
जहँ भए शाक्य, हरिचंदरु नहुष ययाती ।
जहँ राम युधिष्ठिर बासुदेव सर्याती।।
जहें भीम करन अर्जुन की छटा दिखाती ।
तहॅं रही मूढ़ता कलह अविद्या राती ।।
अब जहँ देखहु तहँ दुःखहि दुःख दिखाई।
हा हा भारत दुर्दशा न देखि जाई ।।
शब्दार्थ : रोबहु - रोने के लिए । आवहु - आओ । भीनो - भीगा हुआ। लखाई - दिखाई। मूढ़ता - मूर्खता । अविद्या-अज्ञान। राती - अंधकार ।
भारत दुर्दशा के पहला पद का प्रसंग निम्नलिखित है
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ भारतेन्दु हरिश्चंद्र द्वारा रचित 'भारत दुर्दशा' नामक गीत से उद्धृत हैं। इन पंक्तियों का गायक एक योगी है जो घूमते हुए इसे लेखनी छंद में गाता है। इस गीत द्वारा कवि ने भारती की दुर्दशा को देखते हुए भारतवासियों को प्रेरित करने व जगाने का प्रयास किया है।
भारत दुर्दशा के पहला पद का व्याख्या निम्नलिखित है
व्याख्या : योगी के माध्यम से नाटककार कवि भारतेंदु जी सम्पूर्ण भारतवासियों को इकट्ठे होकर समवेत स्वर में रोने के लिए आमन्त्रित करता है, क्योंकि भारत की वर्तमान पतनावस्था उससे अब और देखी नहीं जा रही है। अर्थात् भारत की अस्मिता और अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लग गया है। यह भारत किसी भी दृष्टि से गौरवशाली नहीं दिख रहा। यहाँ रोने का अर्थ केवल रोने मात्र से नहीं बल्कि चिन्तन, मनन और मंथन से है, ताकि भारत की दुर्दशा में कुछ सुधार हो सके। तत्कालीन अंग्रेजी शासन की दमनकारी नीतियों के कारण कवि ने देशवासियों में राष्ट्रीयता जगाने का आह्वान रुदन के साथ किया है। वास्तव में यह कवि का रुदन नहीं, अपितु उसके हृदय का हाहाकार है, जो चीत्कार कर रहा है, यह एक करुणा है जो पूरे भारत को पुनः अखंड तथा अखिल बनाने का एक आह्वान है। भारत की वर्तमान दशा बहुत ही सोचनीय हो गई है। जिस भारत को ईश्वर ने भी प्रथम पात्र समझकर धन, बल, सभ्यता तथा संस्कृति से सम्पन्न किया, वही भारत आज विश्व प्रगति की दौड़ में सबसे पीछे दिखाई दे रहा है। जिस देश की धरती पर शाक्य, नहुष, ययाति, सत्यवादी हरिश्चन्द्र, राम, युधिष्ठिर, सर्वाति, वासुदेव, भीम, कर्ण, अर्जुन आदि परमगुणी और पराक्रमी पैदा हुए, वहाँ मूर्खता, अविद्या और कलह का अंधकार फैला हुआ है। जिधर भी दृष्टि जाती है, दुख ही दुख फैला दिखता है।
कवि पुनः कहता है कि भारत की ऐसी अवस्था देखकर उसका मन विचलित हो उठता है।
भारत दुर्दशा
दूसरा प्रसंग
करि कलह बुलाई जवनसैन पुनि भारी ।।
तिन नासी बुधि बल विद्या धन बहु वारी ।
छाई अब आलस कुमति कलह अँधियारी ।।
भए अंध पंगु सब दीन हीन बिलखाई ।
हा हा! भारत-दुर्दशा न देखी जाई ।।
अंगरेजराज सुख साज सजे सब भारी ।
पै धन विदेश चलि जात इहे अति ख्वारी ।।
ताहू पै महँगी काल रोग बिस्तारी ।
दिन-दिन दूने दुःख ईस देत हा हा री।।
सबके ऊपर टिक्कस की आफत आई।
हा हा! भारत-दुर्दशा न देखी जाई ।।
भारत दुर्दशा के दूसरा पद का शब्दार्थ निम्नलिखित है
शब्दार्थ : जवन सैन - यवनों की सेना । पुनि - फिर। नासी - नष्ट। बिलखाई - बिलखना, विलाप करना। स्वारी- कष्टकारी । टिक्कस - कर, टैक्स। पंगु - लंगड़ा ।
प्रसंग : पूर्ववत् ।
भारत दुर्दशा के दूसरा पद का व्याख्या निम्नलिखित है
व्याख्या: प्रस्तुत गीतांश में नाटककार कवि भारतेंदु कहता है कि वैदिक जनों ने बौद्धों तथा जैनियों के साथ व्यर्थ ही तर्क-वितर्क करके अपने वैदिक ज्ञान को नष्ट कर लिया। आपसी फूट व झगड़ों के कारण ही यवन सेना भारत को पराजित कर पाई और यवनों ने भारतवासियों की बुद्धि, सम्पदा तथा शक्ति को नष्ट कर डाला। अब तो चारों ओर आलस्य और कुमति का ही अधियारा छाया हुआ है। भारतवासी अंधे तथा अपंग वन दीन-हीन होकर बिलख रहे हैं।
हालांकि अंग्रेजी शासन में औद्योगिक विस्तार हुआ है, सुख-सुविधा के साजे-सामान भी बढ़े हैं। किंतु यहाँ का धन धीरे-धीरे ब्रिटेन भेजा जा रहा है, जो कि बहुत ही कष्टदायी है। महँगाई बढ़ गई है। भारतीयों पर तरह-तरह के टैक्स लगाकर अंग्रेज अधिकारी अपनी तिजोरी भर रहे हैं। सम्पूर्ण भारत भारी मुसीबत में घिरा हुआ है। इस परिस्थिति को इसी प्रकार देखते रहना उचित नहीं है। इसलिए हे भारतवासियों, आओ हम सब मिलकर चिन्तन, मनन और विचार-मंथन करें कि कैसे हम भारत की खोई हुई प्रतिष्ठा को दोबारा प्राप्त कर सकते हैं। अब मुझसे भारत की ऐसी दुर्दशा और देखी नहीं जाती।
भारत दुर्दशा चैप्टर का प्रश्न उत्तर
प्रश्न 1. कवि सभी भारतीयों को किसलिए आमंत्रित करता है और क्यों?
उत्तर- कवि भारतेन्दु हरिश्चंद्र पराधीन भारत की दुर्दशा से इतना व्यक्ति है कि वह भारत की जीर्ण-शीर्ण दशा पर रुदन तथा क्रन्दन करने के लिए भारतीयों को आमंत्रित करता है। वह उन्हें इसलिए आमंत्रित करता है क्योंकि भारत की दीन-हीन दशा अब किसी भी प्रकार से देखी नहीं जा सकती। यह अत्यंत हृदय-विदारक तथा चिन्ताजनक हो गई है। भारतेन्दु को राष्ट्रचिन्तक कवि प के रूप में जाना जाता है। इसलिए उसे राष्ट्र की चिन्ता होना स्वाभाविक है।
प्रश्न 2. कवि के अनुसार भारत कई क्षेत्रों में आगे या पर आज पिछड़ चुका है। पिछड़ने के किन कारणों का कविता में संकेत किया गया है?
उत्तर- कभी भारत विश्व गुरु के रूप में प्रसिद्ध था। सर्वसंपदा, सर्वशक्ति, सर्वज्ञान में सम्पन्न था। लेकिन समय के साथ यह विश्व के अनेक देशों की तुलना में पिछड़ चुका है। इस पिछड़ेपन के भारतेन्दु ने कई कारण गिनाये हैं-मूढ़ता, अविद्या, कलह, वेद, शास्त्रों के प्रति विमुखता, आलस्य और कुमति ।
प्रश्न 3. अब जहँ देखहु तहँ दुःखहिं दुख दिखाई। हा हा भारत-दुर्दशा न देखि जाई ।। इन पक्तियों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए।
उत्तर- प्रस्तुत पंक्तियाँ भारतेन्दु द्वारा रचित नाटक 'भारत दुर्दशा' के प्रथम अंक में आए एक गीत से अवतरित हैं। इन पंक्तियों का गायक एक योगी है जो इस गीत को गाकर मृतप्राय भारतवासियों को जगाने का प्रयास कर रहा है।
इस योगी के माध्यम से भारतेन्दु जी यह बताना चाहते हैं कि भारत में चारों ओर दुख ही दुख व्याप्त है। कहीं भी कोई आशा की किरण दिखाई नहीं देती। भारत ऐसी चिन्ताजनक तथा निराशाजनक स्थिति में पहुँच चुका है कि उसकी चिन्ता करना अब अनिवार्य हो गया है। केवल भाग्य के सहारे बैठने मात्र से या विधाता को ही दोष देने से भारत का दुख दूर नहीं हो सकता। भारत की खोई हुई समृद्धि तथा गौरव बापस लाने के लिए हमें एकजुट होकर प्रयत्न करने होंगे।
प्रश्न 4. भारतीय स्वयं ही अपनी इस दुर्दशा के कारण हैं। कविता के आधार पर उत्तर दीजिए।
उत्तर- कविवर भारतेन्दु हरिश्चंद्र का कहना है कि स्वयं भारतवासी ही भारत की वर्तमान हेय, विगलित तथा जर्जरित अवस्था के लिए जिम्मेदार हैं। वेद, ब्रह्मा के मुख से निकली वाणी माने जाते हैं। वेदों-उपनिषदों में ही हमारा सारा ज्ञान संचित है। बाद में आए बौद्ध तथा जैन धर्म के कारण हम लोग व्यर्थ के ही विवाद में पड़ गए और अपने ज्ञान का क्षय कर लिया है।
'घर का भेदी लंका ढाये'-हमारे ही देश में घटित हुआ। हमारी ही अनेकता, ने यवन राजा को भारत में अक्रमश करने के लिए आमन्त्रित किया। उनके आते ही हमारी रही-सही बुद्धि, विद्या तथा शक्ति का भी नाश हो गया। अब तो घर-घर में कुमति आलस्य और झगड़े का साम्राज्य फैला है।
यदि भारतवासी धर्म के मूल तत्त्व को समझ कर तर्क-वितर्क में न उलझते तो हममें हमेशा एकता बनी रहती तो हम इस हा अधोगति को कभी प्राप्त नहीं होते। इसलिए भारतेंदु का यह कहना सर्वथा उचित है कि इस दुर्दशा के लिए भारतीय स्वयं ही जिम्मेदार हैं।
प्रश्न 5. "लरि वैदिक जैन हुबाई पुस्तक सारी। करि कलह बुलाई जवनसैन पुनि भारी।।” इन पंक्तियों का क्या आशय है?
उत्तर- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा रचित भारत दुर्दशा नामक गीत से उद्धृत इन पंक्तियों में भारतीय इतिहास का एक अति कटु सत्य वर्णित है। समय के अनुकूल नहीं चलने का समय की मांग को अनसुना करने का ही परिणाम है कि भारत के बहुत सारे दुश्मन पैदा हो गये। सर्वविदित है कि वैदिक ज्ञान हमारा सर्वोत्तम ज्ञान है। किन्तु समय के साथ उसमें जो विकृतियाँ आ गयीं, जिनसे भारतीय समाज का ताना-बाना बिखरने लगा। हुआ-छूत, जाति प्रथा, बलि प्रथा आदि से भारतीय समाज का स्वरूप काफी विकृत हो गया। हिंसा के तांडव के बीच बौद्ध और जैन धर्म का जन्म हुआ। सनातन हिन्दू वैदिक लोग उनके साथ तालमेल नहीं बैठा सके और तर्क-वितर्क के चक्कर में पड़ गए। उपेक्षित तथा दलित हिन्दू समाज बौद्ध और जैन धर्म की ओर आकर्षित होने लगे। इसी समय पश्चिमोत्तर प्रांतों पर यवनों के आक्रमण होने लगे। संगठित प्रतिरोध के अभाव में यवन सेना भारतीयों पर भारी पड़ी। पराजय के बाद हम धन, बल और विद्या सबसे जर्जरित हो गए।
अगर हममें तथ्य सत्य स्वीकार करने की क्षमता होती, सहिष्णुता का भाव तथा एकता होती, तो चतुर्दिक पराभव का मुँह कभी नहीं देखना पड़ता। विश्व में हमारी स्थिति इतनी हास्यास्पद और दयनीय नहीं होती।
प्रश्न 6. 'सबके ऊपर टिक्कस की आफत' से कवि ने क्या कहना चाहा है?
उत्तर - उक्त पंक्ति के माध्यम से कविवर भारतेन्दु हरिश्चंद्र तत्कालीन अंग्रेजी शासन प्रणाली के विषय में बताना चाहते हैं। भले ही अंग्रेजी राज में लोगों को अधिक सुख-सुविधा उपलब्ध है, परन्तु यह राज इन सुख-सुविधाओं के ऊपर तरह-तरह के टैक्स भी लगा रहा है। छोटी-छोटी बात पर टैक्स लेने के कारण भारतीयों की आर्थिक स्थिति निरंतर कमजोर होती जा रही है। प्रत्यक्ष 1 एवं अप्रत्यक्ष दोनों रूपों के करों से भारतीय अर्थव्यवस्था का दोहन हो रहा है। अब इस मुसीबत से छुटकारा पाना अनिवार्य हो गया है।
प्रश्न 7. अंग्रेजी शासन सारी सुविधाओं से युक्त है, फिर भी यह कष्टकर है क्यों?
उत्तर- अंग्रेज भारत में व्यापार करने आये थे और धीरे-धीरे यहाँ के शासक बन बैठे। अंग्रेजों ने अपने व्यापारिक हितों को ध्यान में रखकर ही रेल, सड़क, स्कूल-कॉलेज, कल-कारखाने, अस्पताल आदि का निर्माण किया। साथ ही उन्होंने इसे धन उगाही तथा सम्पत्ति दोहन का माध्यम बनाया। यहाँ के अथाह प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करके इंग्लैंड का खजाना भरता गया। कभी सोने की चिड़िया कहलाने वाला देश टैक्स के बोझ के नीचे दबकर बिर्धन से निर्धन होता गया। इसीलिए कवि हरिश्चंद्र ने सुख-सुविधा देने वाले अंग्रेजी शासन को भी कष्टकर ही माना है।
प्रश्न 8. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र रचित कविता भारत दुर्दशा का सरलाय अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा रचित 'भारत दुर्दशा' उत्कृष्ट देश-प्रेम को समर्पित एक सुचर्चित कविता है, जो उनके नाटक दुर्दशा से उद्धृत है। 'भारत की दुर्दशा' देखकर कवि भारतेन्दु की आत्मा चीत्कार उठी है। देश की दुर्दशा से व्यथित होकर कवि भारत के निवासियों को इसकी दुर्दशा पर मिलकर रोने हेतु आमंत्रित करता है। तत्कालीन भारत की राजनीतिक, सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था पर व्यंग्य करते हुए भारतेन्दु जी कहते हैं कि जिस भारत वर्ष को ईश्वर ने सबसे पहले धन एवं बल देकर सभ्य बनाया। सर्वप्रथम विद्वता के भूषण से विभूषित कर रूप, रंग और विभिन्न रसों के सागर में गोता लगवाया, वहीं भारतवर्ष आज अन्य देशों से पिछड़ रहा है। भारत की दुर्दशा देखकर कवि के हृदय में हाहाकार हुआ है।
भारत वर्ष में ही त्याग, तपस्या तथा बलिदान के प्रतीक शाक्य, हरिश्चन्द्र नहुष और ययाति जैसी विभूतियों ने जन्म लिया। यहाँ राम, युधिष्ठिर, सर्याति और वासुदेव जैसे धर्मनिष्ठ और सत्यनिष्ठ अवतरित हुए थे। भारत में ही भीम, अर्जुन और करण जैसे वीर धर्नुधर तथा दानवीर पैदा हुए किंतु आज उसी भारत के निवासी अज्ञानता, अशिक्षा, वैमनस्य और कलह की जंजीरों में कड़कर दुख के सागर में पूरी तरह टूब चुके हैं। भारत की ऐसी दारुण-दशा के कारण कवि का हृदय आन्दोलित है।
राष्ट्रचिंतन से दूर 'अहिंसा परमो धर्मः' को आदर्श मानकर जैन धर्मावलम्बियों ने वैदिक धर्म का विरोध कर यवनों के भारत पर अधिकार करने का मार्ग प्रशस्त किया। मूढ़ता के कारण आपसी कलह ने बल, बुद्धि, विद्या और धन का नाश कर आलस्य, कलह और कुमति की काली घटा से भारतीय जन-जीवन घिर गया। भारत की दुर्दशा अवर्णनीय हो गई है।
अंग्रेजों के शासनकाल अर्थात पराधीन भारत में सुख और वैभव बढ़ गये हैं, लेकिन भारतीय धन विदेश जा रहा है। यह स्थिति अत्यंत कष्टकारी है। उस पर महँगाई सुरसा की भाँति अपना मुँह फाड़े जा रही है। दिनों-दिन दुख बढ़ रहे हैं और ऊपर से 'करों का बोझ तो 'कोढ़ में खाज जैसा कष्टाकारक है। भारत की ऐसी दुर्दशा कवि भारतेंदु के लिए असा हो गई।
प्रश्न 9. निम्नलिखित उद्धरणों की सप्रसंग व्याख्या करें:
(क) रोवहु सब मिलके आवहु भारत भाई।
हा हा! भारत-दुर्दशा न देखी जाई ।। अंग्रेज राज सुख साज सजे सब भारी। पै धन विदेश चलि जात इहे अति सवारी।।
उत्तर- (क) प्रसंग-प्रस्तुत पंक्तियाँ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा रचित 'भारत-दुर्दशा' नामक गीत से उद्धृत है। गायक एक योगी
है जो घूमते हुए इसे लेखनी छंद में गाता है।
व्याख्या-योगी के माध्यम से कवि भारतेंदु भारतवासियों को इकटठे होकर एक स्वर में रोने के लिए आमंत्रित करता है, क्योंकि भारत की यह दुर्दशा अब उससे और नहीं देखी जाती। भारत की अस्मिता खतरे में है क्योंकि अब यह भारत पहले जैसा समृद्ध तथा गौरवशाली नहीं रह गया। भारत के विषय
में चिन्तन करने की आवश्यकता है ताकि भारत की खुशहाली पुनः वापस लौट सके। उपरोक्त पंक्तियाँ कवि के हृदय में मचे
हाहाकार को व्यक्त कर रही हैं। सम्पूर्ण भारत को पुनः अखिल व अखण्ड बनाने के लिए यह एक आह्वान है।
(ख) प्रसंग - पूर्ववत् ।
व्याख्या - 1. कवि कहता है कि भले ही अंग्रेजी शासन ने भारतवासियों को सभी सुख-सुविधाएँ उपलब्ध करवाई हैं, कई प्रकार की साज-सज्जा के सामान उपलब्ध करवाए हैं। किंतु दुःख की बात तो यह है कि सुख भोग के सभी साधनों पर भारी कर लगा हुआ है। कर के द्वारा एकत्रित किया गया धन इंग्लैंड में भेजा जाता है। विदेश में धन जाने के कारण भारत की आर्थिक व्यवस्था निरंतर खराब होती जा रही है जो बहुत दुखदायी है, विचारणीय व सोचनीय बात है।
प्रश्न 10. स्वाधीनता आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में इस कविता की सार्थकता पर विचार कीजिए ।
उत्तर- प्रस्तुत कविता 'भारत दुर्दशा' में देश-प्रेम, देशभक्ति, सामाजिक दुर्व्यवस्था के प्रति आक्रोश, आर्थिक अवनति पर क्षोभ, कुरीतियों का खण्डन, घन का विदेश गमन पर रोष, टैक्स की भयंकरता, आदि पर विचार किया गया है।
प्राचीनकाल में भारतवर्ष में धर्म, दर्शन तथा श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों के कारण विश्वगुरु जैसी उपाधि प्राप्त की थी। आज वही देश क्षणिक भौतिक सुखों की गुलामी की ओर बढ़ रहा है, जोकि अंग्रेजी शासन की देन है। इन अंग्रेजों ने योजनानुसार भारत का विघटन करने की कोशिश की, कई प्रकार के प्रलोभन दिए, विभिन्न प्राकृतिक संसाधनों और भारतीय रत्नों को लूटा और उन्हें अपने देश ले गए। इन्होंने भारत में स्वार्थ वैमनस्य, हिंसा, राग, द्वेष, अहिष्णुता, ईर्ष्या, छल, आशंका, भय, आलस्य और विलासयुक्त फैशन फैलाया। परिणामस्वरूप भारत की दुर्दशा हो गई। भारतीय जीवन को जाग्रत करने हेतु भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने उनकी जातीय चेतना को उबुद्ध करने का प्रयास किया तथा उसके विकासशील पक्ष को हमारे सामने रखने के उद्देश्य से 'भारत-दुर्दशा' नामक इस कविता की रचना की, जो कि स्वाधीनता आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में पूर्णतया सार्थक प्रतीत होती है।
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सहजोबाइ के पद Class 11th Hindi Chapter - 4 Bihar Board || सहजोबाइ के पद का भावार्थ और प्रश्न उत्तर
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