आज इस पोस्ट में हम आपको बिहार बोर्ड Class 11th Hindi काव्यखंड का पहला चैप्टर विद्यापति के पद का सम्पूर्ण भावार्थ, विद्यापति का जीवन परिचय और विद्यापति के पद का प्रश्न उत्तर भी बताने वाले हैं |
सौंदर्य विद्यापति के लिए सबसे बड़ा धर्म है, सबसे बड़ा कर्म है। सौंदर्य उनकी आँखों के सामने नाना रूपों में आता है, और वे सौंदर्य के स्वागत में निरंतर जागरूक दिखाई पड़ते हैं। विद्यापति के पास वह आँख थी, वस्तु के रूप को परखने का अणुवीक्षण यंत्र था, जिसकी सीमा में आकर रूप का एक अणु भी उनकी दृष्टि से बच नहीं सका।" (विद्यापति) - शिवप्रसाद सिंह
1. विद्यापति
कवि-परिचय
जीवन-परिचय : व्यक्ति विद्यापति का जन्म 1960 ई. के आसपास बिहार के मधुबनी जिले के बिस्पी नामक गाँव में हुआ था। हालांकि उनके जन्म काल के संबंध में कोई प्रमाणिक सूचना उपलब्ध नहीं है। केवल उनके आश्रयदाता मिथिला नरेश राजा शिव सिंह के राज्य-काल के आधार पर ही उनके जन्म और मृत्यु के समय का अंदाजा लगाया गया है। विद्यापति साहित्य संगीत, संस्कृति, ज्योतिष, दर्शन, इतिहास, न्याय, भूगोल आदि के प्रकांड विद्वान थे। सन् 1448 ई. में उनका देहावसान हो गया।
विद्यापति बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि और तर्कशील व्यक्ति थे। उनके विषय में हमेशा विवाद रहा है कि वे बंगाल के कवि हैं या हिंदी भाषा के, किंतु अब यह तथ्य स्वीकार्य है कि वे मैथिली भाषा के कवि थे। वे मध्यकाल के हिंदी साहित्य के ऐसे कवि हैं जिनके काव्य में जनभाषा के माध्यम से जनसंस्कृति को व्यापक अभिव्यक्ति मिली है। वे साहित्य, संगीत, संस्कृति ज्योतिष, इतिहास, न्याय, दर्शन, भूगोल आदि विविध विषयों का गंभीर ज्ञान रखते थे। उन्होंने संस्कृत, अपभ्रंश तथा मैथिली तीन भाषाओं में काव्य-रचना की है। साथ ही उन्हें कुछ अन्य समकालीन बोलियों अथवा भाषाओं का ज्ञान भी था। वे दरबारी कवि थे, इसलिए दरबारी संस्कृति का प्रभाव उनकी महत्त्वपूर्ण रचनाओं कीर्तिलता तथा कीर्तिपताका' पर स्पष्ट देखा जा सकता है। उनकी पदावली ही उनको यशस्वी कवि सिद्ध करती है।
काव्यगत रचनाएँ : विद्यापति की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं- कीर्तिलता, कीर्तिपताका, भू-परिक्रमा, पुरुष-परीक्षा, लिखनावली और विद्यापति पदावली।
भाषा-शैली : विद्यापति मूलतः मैथिली भाषा के कवि हैं। उन्होंने संस्कृत और अपभ्रंश भाषाओं में भी विपुल साहित्य की रचना की है। वास्तव में, उनकी भाषा लोक व्यवहार की भाषा है। उनकी रचनाओं में जनभाषा में जनसंस्कृति की ही अभिव्यक्ति हुई है। उन्होंने अपनी भाषा में आम बोलचाल के मैथिली शब्दों का व्यापक प्रयोग किया है।
काव्य-सौंदर्य : विद्यापति द्वारा रचित पद मिथिला क्षेत्र के लोक व्यवहार तथा सांस्कृतिक अनुष्ठान में खुलकर प्रयुक्त होते हैं। उनके पदों में लोकानुरंजन तथा मानवीय प्रेम के साथ व्यावहारिक जीवन के विभिन्न रूपों को बड़े ही मनोरम व आकर्षक ढंग से प्रस्तुत किया है। इन्होंने राधा-कृष्ण को माध्यम बनाकर लौकिक प्रेम के विविध रूपों का वर्णन किया है।
उनके काव्य में प्रकृति के मनोरम रूप भी देखने को मिलते हैं। ऐसे पदों में कवि के अपूर्व कौशल, कल्पनाशीलता तथा प्रतिभा के दर्शन होते हैं। इनके समस्त काव्य में प्रेम व सौंदर्य की निश्छल और अनूठी अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। विद्यापति मूलतः शृंगार के कवि हैं और राधा व कृष्ण इनके माध्यम हैं। इन पदों में अनुपम माधुर्य है। उन्होंने भक्ति व शृंगार का ऐसा सम्मिश्रण प्रस्तुत किया है, वैसा अन्यत्र मिलना संभव नहीं है। अधिकांश पदों में राधा और कृष्ण के प्रेम के विविध रूपों का वर्णन मिलता है। इनके कुछ पद प्रकृति के सौंदर्य का वर्णन करते हैं जबकि कुछ पद विभिन्न देवी-देवताओं की स्तुति में लिखे गये हैं|
विद्यापति के पद
पद-1
चानन भेल विषम सर रे, भूषन भेल भारी ।
सपनहुँ नहिं हरि आएल रे, गोकुल गिरधारी ।।
एकसरि ठादि कदम-तरे रे, पच हेरवि मुरारी।
हरि बिनु देह दगम भेल रे, झामर भेल सारी ।।
जाह जाह तोहें ऊधव हे, तोहें मधुपुर जाहे ।
चन्द्रवदनि नहि जीउति रे, बघ लागत काहे ।।
भनइ विद्यापति मन दए रे, सुनु गुनमति नारी।
आज आओत हरि गोकुल रे, पथ चलु झट- झारी ।।
विद्यापति के पहला पद का शब्दार्थ निम्नलिखित है,
शब्दार्थ - चानन - चन्दन। विषम - भीषण | सर- बाण, भूषन- आभूषण ,एकसरि - अकेली, कदम-तरे -- कदम्ब वृक्ष के नीचे , हेरचि - देखती है। झामर - मलिन/मैली , बघ- बघ, झट - झाटि- झटक देती है।
विद्यापति के पहला पद का भावार्थ निम्नलिखित है,
प्रसंग - प्रस्तुत पद 'विद्यापति पदावली' (रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित) से लिया गया है। इस पद में प्रेम के विरह पक्ष का चित्रण किया गया है। इसमें श्रीकृष्ण के विरह की बहुत ही उत्कट व्यंजना की गई है। इस व्यंजना में शास्त्रीयता तथा रूढ़ि से अलग हटकर विरह की लोकसुलभ मार्मिकता व्यक्त की गई है।
प्रस्तुत पद में विरहिणी राधा की सखी उद्धव के समक्ष राधा की विरह व्यथा का वर्णन कर रही है-
विद्यापति के पहला पद का व्याख्या निम्नलिखित है,
व्याख्या : सखी कहती है-हे उद्धव कृष्ण के वियोग में विरहिणी राधा के लिए चन्दन भी कठोर बाण के समान दुखदायी बन गया है, उसके आभूषण उसके लिए बोझ बन गए हैं। ऐसी दशा में भी गोकुल के प्रिय और गोवर्धन पर्वत को धारण करके गोकुल की रक्षा करने वाले उसे स्वप्न में भी दर्शन नहीं देते हैं। राधा अकेली ही कदम्ब के पेड़ के नीचे खड़ी होकर कृष्ण का मार्ग देखती रहती है। कृष्ण के बिना विरहाग्नि उसके शरीर को जलाती रहती है और अपनी सुधि-बुधि न होने के कारण उसकी साड़ी भी अस्त-व्यस्त और मैली हो गई है। हे उद्धव तुम शीघ्र ही मथुरा जाओ और उनसे कहना कि चन्द्रमा के समान सुन्दर मुख वाली राधा अब उनके बिना और जीवित नहीं रहेगी तो फिर तुम्हीं बताओ, उसकी हत्या का दोष किसे लगेगा? अर्थात् तुम्ही उसकी हत्या के दोषी बनोगे। कवि विद्यापति कहते हैं कि हे गुणवती नारी ध्यानपूर्वक सुनो आज कृष्ण गोकुल में आयेंगे, अतः तुम शीघ्रता से चलकर रास्ते में उनका स्वागत करो।
पद - 2
सरस बसंत समय भत पाओल, दछिन पवन बहु धीरे।
सपनहुँ रूप बचन एक भाखिए, मुख सओं दुरि करु चीरे ।।
तोहर बदन सन चान होअथि नहि, जइओ जतन विहि देला।
कए बेरि काटि बनाओल नव कए, तइओ तुलित नहि भेला ।।
लोचन- तूल कमल नहिं भए सक, से जग के नहिं जाने।
से फेरि जाए नुकाएल जल भए, पंकज निज अपमाने।।
मनइ विद्यापति सुनु वर जौवति, ई सभ लछमी समाने।
राजा सिवसिंह रूपनराएन, लखिमा देइ रमाने ।।
विद्यापति के दूसरा पद का शब्दार्थ निम्नलिखित है,
शब्दार्थ : पाओल - पाया। ,बदन- मुख, चान -चन्द्रमा ,जइयो - जितना भी , जतन- यत्न, उपाय, विहि - विधाता , कए-कितने, तुलित - तुल्य | लोचन - नयन, आँख | नुकाएल - छिप गए। पंकज - कमल | जोवति - युवती। लखिमा देह - लखिमा देवी | रमाने - रमण। ई सभ - यह सब। विहि - विधि, तइओ - तथापि | गोकुल - ब्रज, वृंदावन। चीर - वस्त्र ,भल- सुन्दर | दुरि करू - दूर हटाओ | धीरे - आँचल को | जाए नुकाएल - छिप जाता है। तोहर बदन-सम- तुम्हारे मुख के समान।
विद्यापति के दूसरा पद का प्रसंग निम्नलिखित है,
प्रसंग प्रस्तुत पद 'विद्यापति पदावली' (रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित) से लिया गया है। वसंत के सरस और मनोहर वातावरण में रूप-सौंदर्य की छटा प्रेमी के तृषित मन में कुछ ऐसे अनुभव होती है कि उसे लगता है कि यह रूप-सौंदर्य अनुपम मुख पर से। और अद्वितीय है। इसकी कहीं कोई बराबरी नहीं हो सकती है।
इस पद में नायिका (राधा) अपनी सखी से अपने रूप-सौंदर्य की प्रशंसा कर रही है।
विद्यापति के दूसरा पद का व्याख्या निम्नलिखित है,
व्याख्या:- राधा अपनी सखी से कहती है कि हे सखी वसन्त ऋतु का सरस और आनन्ददायक समय आया तथा मलय पवन धीरे-धीरे चलने लगी। स्वपन में एक व्यक्ति ने मुझसे अपने मुख पर से आँचल हटाने के लिए कहा। यद्यपि विधाता ने कई बार प्रयत्न किए, लेकिन तुम्हारे मुख के समान सुंदर चन्द्रमा नहीं बन सका। विधाता ने कई बार उसे काट-काटकर नया बनाया, तब भी वह तुम्हारे मुख जैसा नहीं बन सका। इस बात को इस संसार में भला कौन नहीं जानता कि कमल भी तुम्हारे नयनों की बराबरी नहीं कर सके हैं, इसीलिए वे अपने अपमान के भय से जल में जाकर छिप गए हैं। कवि विद्यापति कहते हैं कि हे श्रेष्ठ युवती। सुनो, ये सब (रूप-सौंदर्य) लक्ष्मी के समान है। रानी लखिमादेवी के पति रूपनारायण राजा शिवसिंह इस रहस्य को अच्छी तरह जानते हैं।
विद्यापति के पद का प्रश्न उत्तर निम्नलिखित है, 11th Class Hindi Kavykhand Chapter 1 विद्यापति के पद का प्रश्न उत्तर
अभ्यास
प्रश्न 1. राधा को चन्दन भी विषम क्यों महसूस होता है?
उत्तर-राधा श्रीकृष्ण के वियोग में विदग्ध हो गई। अतः विदग्धा नायिका के लिए चन्दन का शीतलता प्रदान करने वाला लेप भी विषम हो गया है। विरह की ज्वाला के कारण ही राधा को चन्दन विषम प्रतीत हो रहा है।
प्रश्न 2. राधा की साड़ी मलिन हो गई है। ऐसी स्थिति कैसे उत्पन्न हो गई?
उत्तर- उद्धव के कहे अनुसार मथुरा से कृष्ण आने वाले हैं। इसलिए राधा नयी साड़ी पहन कर कृष्ण के आने की बाट जोह रही है लेकिन विरह की अवधि जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, राधा की बेचैनी भी बढ़ती जाती है। धीरे-धीरे वह विस्मृति की अवस्था प्राप्त कर लेती है। उसे अपने शरीर की कोई भी सुधि-बुधि नही रहती। परिणामस्वरूप उसकी साड़ी रास्ते की धूल हवा, पानी आदि के प्रभाव से मलिन (भैली) हो जाती है।
प्रश्न 3. चंन्द्रवदनि नहीं जीउति रे, बघ लागत काहे।' इस पंक्ति का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- राधा श्रीकृष्ण के विरह से व्याकुल है। राधा की व्याकुलता को देख उसकी सखियों को लगता है कि अब राधा कृष्ण के बिना जीवित नहीं रह पाएगी। इसलिए वे उद्धव से कहती हैं-'हे उद्धव चन्द्रमुखी राधा अब जीवित नहीं रहेगी। आप ही हमे बताएँ कि इस हत्या का पाप किसे लगेगा? कहने का तात्पर्य है कि हे उद्धव ! आप अति शीघ्र मथुरा जाकर कृष्ण को यहाँ भेज दें नही तो उनके विरह में राधा मर जाएगी और इस हत्या का पाप श्रीकृष्ण को ही लगेगा।
प्रश्न 4. विद्यापति विरही नायिका से क्या कहते हैं? उनके कवन का क्या महत्व है?
उत्तर- 1. विद्यापति विरही नायिका से कहते हैं कि हे गुणवती नारी आज श्रीकृष्ण लौटकर गोकुल आने वाले हैं, अतः तुम मार्ग में चलकर शीघ्र ही उनकी प्रतीक्षा करो।
2. विद्यापति का यह कहने का उद्देश्य है कि वे श्रीकृष्ण पर किसी प्रकार का कोई दोषारोपण सहन नहीं कर सकते। इसलिए वे राधा को आश्वासन देते हैं कि मरने की आवश्यकता नहीं है, श्रीकृष्ण आज ही गोकुल आएँगे। अतः उसे प्रसन्न करते हुए वे कहते हैं कि चलो, चलकर श्रीकृष्ण का स्वागत करो।
प्रश्न 5. प्रथम पद का भावार्य अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर- प्रथम पद में कवि ने राधा के विरह का बड़ा की मार्मिक चित्रण किया है। इसमें श्रीकृष्ण के विरह की अत्यंत उत्कट व्यंजना है। राधा की स्थिति ऐसी हो गई है कि वह श्रीकृष्ण के बिना जीवित नहीं रहना चाहती इस पद के अंत में कवि राधा को कृष्ण के आने का आश्वासन देकर उसको प्रसन्नतापूर्वक धैर्य धारण करने को कहते हैं।
प्रश्न 6. नायिका के मुख की उपमा विद्यापति ने किस उपमान से दी है? प्रयुक्त उपमान से विद्यापति क्यों संतुष्ट नहीं हैं?
उत्तर- नायिका के मुख की उपमा विद्यापति ने चन्द्रमा से की है। इस उपमान से विद्यापति संतुष्ट नहीं है क्योंकि नायिका का मुख इतना अधिक सुन्दर है कि विधाता को भी चन्द्रमा बनाते समय उसमें कई बार काट-छाँट करनी पड़ी, फिर भी यह चन्द्रमा को नायिका के मुख जैसा सुन्दर नहीं बना सका। कवि के कहने का आशय यह है कि नायिका का मुख चन्द्रमा से भी कई गुना सुन्दर है। कवि को नायिका के मुख के समान सुन्दर कोई भी उपमान मिला ही नहीं, इसीलिए वह असंतुष्ट हैं।
प्रश्न 7. कमल आँखों के समान क्यों नहीं हो सकता? कविता के आधार पर बताएँ। आँखों के लिए आप कौन-कौन सी उपमाएँ देंगे? अपनी उपमाओं से आंधों का गुण साम्य भी दर्शाएँ।
उत्तर-विद्यापति कहते हैं कि हे नायिका कमल भी तुम्हारी आँखों की बराबरी नही कर सकता क्योंकि ऐसा करने से कमल को अपना अपमान लगने लगता है। अपने अपमान के भय के कारण ही कमल जल में जाकर छिप गए हैं। अर्थात् नायिका की आँखे कमल से भी अधिक सुन्दर है। आँखों के लिए 'मृगनयनी', 'मीनाक्षी आदि उपमाओं का प्रयोग किया जा सकता है। मृगनयनी अर्थात् मृग (हिरण) के समान आँखों वाली (हिरण अपनी सुन्दर आँखों के लिए प्रसिद्ध है)। मीनाक्षी अर्थात् मछली के समान नेत्रों वाली।
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