बिहार बोर्ड Class 11th Hindi
Chapter -11 भोगे हुए दिन
लेखिका - मेहरून्निसा परवेज
बिहार बोर्ड कक्षा- 11वी हिंदी दिगंत भाग-01 चैप्टर(भोगे हुए दिन) लेखिका क परिचय, सारांश, प्रश्न उत्तर
लेखिका - मेहरून्निसा परवेज का जीवन परिचय
जीवन-परिचय - हिंदी की आधुनिक महिला कथाकार मेहरुन्निसा परवेज़ का जन्म 10 दिसंबर 1944 को मध्य प्रदेश राज्य के बालाघाट जनपद के बहला नामक गाँव में हुआ था।
इनके पिता का नाम श्री ए.एच. खान था। इन्हें हिंदी-उर्दू के साथ-साथ मध्यप्रदेश की अनेक बोलियों (छत्तीसगढ़ी, हलवी, बुदेलखंडी, मालवी आदि) का भी काफी ज्ञान था।
सामाजिक कार्यों में इनकी सक्रियता बहुत अधिक है। इसका उदाहरण बस्तर के आदिवासियों और शोषित दलित जातियों-समुदायों की बेहतरी के लिए किया गया लेखन कार्य है सन् 1995 में वे चरारे शरीफ में हिंसा के समय गाँधी शांति मिशन की सांप्रदायिक सद्भाव यात्रा में कश्मीर भी गई। इन्होंने लंदन, रूस, फ्रांस आदि की साहित्यिक सामाजिक सद्भाव यात्राएँ और अनेक सम्मेलनों में सहभागिता दिखाई है।
साहित्यिक रचनाएं : मेहरुन्निसा परवेज़ की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ निम्नलिखित हैं-
उपन्यास : उसका घर, समरांगण, कोरजा, आँखों की दहलीज़, अकेला पलाश, पासंग आदि । कहानी संग्रह : आदम और हव्वा, गलत पुरुष, फाल्गुनी, टहनियों पर धूप, अंतिम चढ़ाई, अयोध्या
से वापसी, सोने का बेसर, ढहता कुतुबमीनार, कोई नहीं, रिश्ते, अम्माँ, समर, मेरी बस्तर की कहानियाँ, लाल गुलाब आदि ।
पुरस्कार एवं सम्मान : अपनी उल्लेखनीय साहित्यिक उपलब्धियों के लिए वे 1995 ई. में लंदन में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में विशिष्ट सम्मान, 2006 ई. में 'भारत भाषा भूषण' सम्मान तथा 2005 ई. में भारत के राष्ट्रपति द्वारा 'पद्मश्री' अलंकरण से सम्मानित पुरस्कृत हो चुकी हैं।
साहित्यिक विशेषताएँ: मेहरुन्निसा परवेज के कथा-साहित्य में मुस्लिम मध्यमवर्गीय जीवन के अनेक विश्वसनीय अंतरंग चित्र मिलते हैं। उन्होंने समाज के पिछड़े वर्गों और तिरस्कृत समुदाय के जीवन को अपने कथा साहित्य का विषय बनाया। वे हमेशा अपने विषय, परिवेश और पात्र पर खोजी दृष्टि रखती हैं। उनकी मानवीय दृष्टि, गहरी संवेदना तथा कल्पनाशील ताने-बाने के कारण उनकी रचनाएँ जिज्ञासा, खोज अथवा पत्रकारिता की सतह से ऊपर उठकर सर्जनात्मक ऊर्जा और मूल्यबोध से दमक उठती हैं।
अनवरत लिख रहीं मेहरुन्निसा परवेज़ से समाज को एक से बढ़कर एक उत्कृष्ट रचनाओं की आशा
Question Answer
प्रश्न 1. जावेद और सोफिया इस काहनी के प्रमुख पात्र हैं, इनका परिचय आप अपने शब्दों में दें।
उत्तर- मेहरुन्निसा परवेज द्वारा लिखित कहानी 'भोगे हुए दिन' के प्रमुख पात्र हैं-जावेद और सोफिया जावेद और सोफिया शांदा साहब की विधवा बेटी के बच्चे हैं। शांदा साहब अपने जमाने के एक सुप्रसिद्ध शायर थे। लेकिन अब वे अपनी वृद्धावस्था की उपेक्षा का दंश झेलने को मजबूर हैं। अपर्याप्त और अनियमित आज से घर का खर्च कठिनाई से चलता है उनकी बेटी एक उर्दू प्राइमरी स्कूल में अध्यापन का कार्य करती है। शांदा साहब को सरकार से सी रुपए पेंशन के रूप में मिलते हैं। घर के सामने खाली जमीन पर एक पेड़ के नीचे जलावन की लकड़ी की एक छोटी-सी दुकान है। इस सीमित आय से ही वे अपनी पारिवारिक समस्याओं का समाधान कर रहे हैं। धन की कमी के कारण बच्चों की पढ़ाई की उचित व्यवस्था भी नहीं हो पाती है। जावेद एक स्कूल में तीसरे वर्ग में पढ़ रहा है। वह बहुत ही सुशील और अनुशासित लड़का है। पढ़ाई के अतिरिक्त यह गृह कार्यों में पूरा सहयोग करता है। उसकी बहन सोफिया सात साल की है। पैसे की कमी के कारण उसका नामांकन स्कूल में अभी तक नहीं हुआ है। वह घर पर ही थोड़ा बहुत पढ़ लेती है। दिन में जलावन की लकड़ी की दुकान पर बैठकर लकड़ी भी बेचती है। घर के कुछ अन्य कार्य भी करती है। भोली-भाली सोफिया अपनी वर्तमान स्थिति से ही सन्तुष्ट है। दोनों बच्चे इस दयनीय स्थिति में जरा भी विचलित नहीं हैं। दोनों बच्चे अपनी सामर्थ्य के अनुसार पारिवारिक कार्यों को कर रहे हैं।
2. पुरानी साहब को क्यों पीड़ा दे रही थी?
उत्तर- साहब का अतीत स्वर्णिम रहा है। वे अपने जमाने के प्रसिद्ध शायर थे, जिन्हें सुनने के लिए अपार जनसमू एकत्र होता था। मुशायरों और कवि सम्मेलनों में उन्हें सम्मानपूर्वक आमंत्रित किया जाता था और उनकी नारी का आनन्द उठाते थे। महाकवि इकबाल उनके निष्ठ मित्रों में से एक थे तथा कई मुशायरों में दोनों एक साथ कार्यक्रम में उपस्थित हुए थे। दोनों में प्रायः पत्राचार भी होता रहता था। उस दौर में शांदा साहब को देखने और उनकी शायरी का आनन्द के लिए दूर-दूर से लोग आते थे। एक ही शेर या कविता को कई बार पढ़वाया जाता था, ऐसी दीवानगी थी श्रोताओं में उनके लिए समय बदला और अब ढलती हुई उम्र में ये महत्वहीन हो गए हैं, अप्रासंगिक हो गए हैं। किसी ने ठीक कहा है कि उगते हुए सूरज को सभी सलाम करते हैं, छिपते सूर्य को नहीं। यही शांदा साहब की पीड़ा का प्रमुख कारण है। उनकी विषादपूर्ण प्रतिक्रिया उनके निम्न वाक्यों में झलकती है बेटा, मैंने अपनी इन आँखों से दो दौर देखे हैं, एक वह वक्त जब मेरे नाम से दूर-दूर से लोग आते थे, एक-एक शेर को हजारों बार पढ़वाया जाता था। दूसरा वक्त अब देख रहा हूँ, वही लोग जो मेरे दीवाने थे, अब मुझे भूल गए हैं।" कितनी मार्मिक है उनकी यह उक्ति उनका मानना है-"शायर को उस वक्त मर जाना चाहिए, जब लोग उसे पसंद करते हों, दीवाने हों।" शांदा साहब लोगों की इस मनोवृत्ति से अत्यन्त विक्षुब्ध थे। इसलिए ये कहते हैं कि व्यक्ति को तभी तक जीवित रहना चाहिए जब तक उसकी उपयोगिता है।
मेहरुन्निसा परवेज ने "भोगे हुए दिन" नामक कहानी में शांदा साहब द्वारा इस वास्तविकता से उपजी पीड़ा का सफल चित्रांकन किया है।
प्रश्न 3. कहानी में शमीम की भूमिका का वर्णन अपने शब्दों में करें।
उत्तर- शांदा साहब भोगे हुए दिन' नामक कहानी के प्रमुख पात्र हैं, जो अपने जमाने के एक सुप्रसिद्ध शायर थे। उनकी लोकप्रियता दूर-दूर तक फैली हुई थी। उनके हजारों प्रशंसक थे उन्हीं प्रशंसकों में शमीम भी एक थे, जिन्होंने पिछली गर्मियों में शादा साहब को अपने शहर में होने वाले मुशायरे में अध्यक्ष के रूप में आमंत्रित किया था। शांदा साहब की बुजुर्गियत देखते हुए शमीम ने उनके ठहरने का इंतजाम अपने ही घर में किया। इस प्रकार शांदा साहब और शमीम दोनों काफी करीब आ गए। शमीम शांदा साहब से मिलने के लिए उनके पर आते हैं। शमीम ने सोचा था कि जैसा शांदा साहब का व्यक्तित्व है, वैसी ही उनकी आर्थिक स्थिति और घर का वातावरण भी होगा। लेकिन शांदा साहब के घर का वातावरण शमीम की सोच के एकदम प्रतिकूल निकला। उनका टूटा-फूटा मकान, उखड़ा फर्श, ऊपर बने कमरों में जाने के लिए लगी लकड़ी की सीढ़ी, कमरे के फर्नीचर तथा सस्ते से सामान को देखते ही शमीम को शायर साहब की आर्थिक स्थिति का अंदाजा हो गया। दो दिन वहाँ रहने पर तो शमीम को उनके घर के वातावरण का पूरा ज्ञान हो गया। अभावों को सहते परिवार के सदस्यों का रहन-सहन देखकर शमीम को उनसे आत्मीयता और सहानुभूति हो जाती है। सात साल की सोफिया लकड़ी की दुकान पर बैठकर ग्राहकों को लकड़ी तौलती है तथा स्कूल जाने से वंचित रह जाती है। दस वर्षीय जावेद स्कूल तो जाता है लेकिन लौटकर घर के अन्य कामों में हाथ बंटाता है। यह सब देखकर शमीम को बच्चों के साथ गहरी सहानुभूति हो जाती है। परिवार के सभी सदस्यों के साथ-साथ इन बच्चा को भी काम में लगा देखकर यह प्रसन्न हो जाता है।
शमीम एक भावुक और दयालु प्रवृत्ति का व्यक्ति है जो शांदा साहब से गहरा लगाव और सहानुभूति रखता है।
प्रश्न 4. 'शायर को उस वक्त मर जाना चाहिए, जब लोग उसे पसन्द करते हों, दीवाने हों।' इस कथन के मर्म को अपने शब्दों में उद्घाटित करें।
उत्तर- मेहरुन्निसा परवेज द्वारा लिखित कहानी भोगे हुए दिन" से उद्धृत उपर्युक्त पंक्ति कटु सत्य पर आधारित हैं। शादा साहब अपने समय के एक लब्धप्रतिष्ठ शायर हैं। एक जमाना था जब उनके लाखों प्रशंसक हुआ करते थे। श्रोतागण मंत्र-मुग्ध होकर उनकी कविता का आनंद उठाते थे। एक-एक कविता को कई बार सुनाने का आग्रह किया जाता था। श्रोताओं की तालियाँ से पूरा मुशायरा स्थल गूंज उठता था। सुप्रसिद्ध कवि इकबाल उनके समकालीन थे और शांदा साहब ने घनिष्ठ मित्रों में से थे। कई कवि-सम्मेलनों में दोनों एक साथ सम्मिलित हुए थे। शांदा साहब के पास अनेकों प्रशास्ति पत्र और कवि इकबाल के साथ पत्राचार की एक लम्बी श्रृंखला थी तथा उन पत्रों से उनका बक्सा पूरा भरा हुआ था। इन पत्रों को बक्सों से निकाल कर वह शमीम को पढ़ने के लिए देते हैं। कितने गौरवशाली थे वे दिन अब तो स्थिति यह है कि समय के थपेड़ों ने उन्हें बिल्कुल अशक्त बना दिया है। उनमें अब वह ऊर्जा तथा सामर्थ्य नहीं है। योग्यता तो है, किन्तु ओजपूर्ण भाषा में सशक्त अभिव्यक्ति की क्षमता का हाल हो चुका है। इसलिए अब न तो वह श्रोताओं और प्रशंसकों की भीड़ है और न ही सम्मेलनों के लिए निमंत्रण। इसी कारण शादा साहब आहत और दुःखी होकर कहते हैं कि 'शायर को उस वक्त पर जाना चाहिए, जब लोग उसे पसन्द करते हों, उसके दीवाने हो।'
प्रश्न 5. 'हम लोग तो और नंगे हो गए हैं। बेटा मैंने अपनी इन आँखों से दो दौर देखे हैं।' इस कथन का आशय स्पष्ट करते हुए बताएं कि यहाँ किन दो दौरों की चर्चा है।
उत्तर- "भोगे हुए दिन' शीर्षक कहानी में मेहरुन्निसा परवेज ने शांदा साहब नामक शायर के जीवन का बड़ा ही हृदयस्पर्शी चित्रण किया है। शांदा साहब इस कहानी के प्रमुख पात्र हैं, जिन्होंने अपने जीवन में दो दौर देखे हैं। प्रथम दौर में उन्होंने एक प्रसिद्ध शायर के रूप में अपनी सफलता के स्वर्णिम दिन देखे हैं। वे अपनी प्रसिद्धि और युवावस्था के दौर नए शिखर छू रहे थे। इस समय उनका उत्कर्ष चरम पर था। हर छोटे-बड़े मुशायरे में उन्हें सम्मानपूर्वक किया जाता था। कई मुशायरों में तो उन्हें अध्यक्ष की हैसियत से भी बुलाया जाता था। श्रोतागण मंत्रमुग्ध होकर उनकी शायरी का आनंद उठाते थे। मुशायरों में एक-एक शेर कविता को कई बार सुना जाता था तथा तालियाँ बजाकर उनका उत्साहवर्धन किया जाता था। यह उनके जीवन का स्वर्णिम काल था।
अपने जीवन के दूसरे दौर में उन्होंने दिनों को देखा नहीं अपितु भोगा है। समय बीतने के साथ ये भी वृद्धावस्था की और बढ़ने लगे। उनके गुण गाने वाले प्रशंसक धीरे-धीरे उन्हें भूलने लगे। लोगों में अच्छे गलेवालों की चाह बढ़ने लगी। परिणामस्वरूप मुशायरों एवं सम्मेलनों में उन्हें बुलाया जाना बंद हो गया। उनमें योग्यता तो थी लेकिन अच्छे गले से गाने की ताकत न थी। उनकी शायरी के लिए सजने वाली महफिलें अब गुजरे जमाने की बातें बन गई थीं। उन्हें अत्यंत गरीबी में दिन बिताने पड़े। आज वे समाज और सरकार दोनों द्वारा उपेक्षित हो गए हैं और तिरस्कार, अनादर और उपेक्षा का विष पीने को मजबूर हैं।
प्रश्न 6. “और मैं सोय रहा था अगर आज इकबाल होते तो!" इस कवन का क्या अभिप्राय है? अगर आज इकबाल होते तो क्या होता? अपनी कल्पना से उत्तर दें।
उत्तर- मेहरुन्निसा परवेज लिखित "भोगे हुए दिन" नामक कहानी के एक पात्र शमीम अपने शहर से चलकर वयोवृद्ध और लब्धप्रतिष्ठ शायर शांदा साहब से मिलने उनके शहर जाते हैं। शांदा साहब वृद्ध और दुर्बल हो गए हैं। अब उनको कवि सम्मेलनों और मुशायरों में नहीं बुलाया जाता। वह गुमनामी के दौर से गुजर रहे हैं। जर्जर मकान में रहकर किसी प्रकार अपनी गुजर-बसर कर रहे हैं। प्रसिद्ध कवि इकबाल उनके अभिन्न मित्र थे। दोनों साथ-साथ कवि गोष्ठियों और अन्य सम्मेलनों में जाया करते थे। उनके बीच अक्सर पत्राचार भी होता रहता था।
धन के अभाव के कारण बच्चों की शिक्षा-दीक्षा ठीक ढंग से नहीं हो पा रही थी। जावेद एक स्कूल में तीसरे वर्ग में पढ़ रहा है। सात वर्षीया सोफिया घर पर रहकर लड़की बेचती थी तथा घर के अन्य काम करती है। जावेद भी उसकी सहायता करता है। परिवार का हर सदस्य दिन-रात गृहस्थी के काम में लगा हुआ है। कोई व्यक्ति कभी एक क्षण भी नहीं बर्बाद करना चाहता। दो दिन यहाँ ठहरने के बाद, जब शमीम साहब ताँगे पर सवार होकर वापस जा रहे थे तो उन्हें लकड़ी तथा तराजू के पास
बैठी सोफिया दिखाई दी। उसी समय उनके हृदय में यह विचार आया कि अगर आज इकबाल होते तो... शमीम इसी उधेड़बुन में थे कि यदि महाकवि इकबाल जिंदा होते तथा इस घर की ऐसी स्थिति से अवगत होते तो उन पर इसकी क्या प्रतिक्रिया होती और ये क्या कदम उठाते। मेरे विचार में यदि इकबाल जीवित होते तो शांदा शाहब की इस दयनीय हालत को देखकर निश्चित रूप से द्रवित हो जाते। ये शांदा साहब के लिए सरकार तथा अन्य विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं से आर्थिक सहायता प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करते। साथ ही स्वयं भी यथासंभव सहयोग करते जिससे बच्चों के पढ़ाई सहित घर की अन्य समस्याओं का काफी हद तक समाधान हो सके।
प्रश्न 7. कहानी के शीर्षक 'भोगे हुए दिन' की सार्थकता पर विचार करें।
उत्तर- किसी भी घर में जाने के लिए जो महत्त्व प्रवेशद्वार का होता है, वही महत्त्व किसी भी रचना के शीर्षक का होता है। किसी भी रचना के शीर्षक को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि इसका कथ्य क्या हो सकता है। कथ्य का सार और मूल भाव मुख्यतः उसके शीर्षक से ही स्पष्ट हो जाता है। आकर्षक शीर्षक पाठक के मन में रचना को पढ़ने की लालसा पैदा कर देता है। जब हम 'भोगे हुए दिन' कहानी को शीर्षक की सार्थकता की कसौटी पर कसते हैं तो पाते हैं कि इस कहानी का शीर्षक 'भोगे हुए दिन एकदम उपयुक्त है। शीर्षक का नाम पढ़ते ही हमारे मन में अनेकों जिज्ञासाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। जैसे-भोगे हुए दिन का तात्पर्य क्या है, दिनों को किसने भोगा, क्यों भोगा, लेखक को किसी के जीवन के बीते दिनों को भोगना क्यों कहना पड़ा? किसी भी रचना का अच्छा शीर्षक पाठक के मन में अनेक उपर्युक्त प्रश्न पैदा कर जिज्ञासा उत्पन्न करता है और पाठक उसे पढ़ने पर बाध्य हो जाता है।
प्रस्तुत कहानी में शांदा साहब अपने जमाने के ख्याति प्राप्त शायर थे। लोग उनकी शायरी के दीवाने थे। वे मुशायरों में सम्मानपूर्वक बुलाए जाते थे। रेडियो वाले उनके प्रोग्राम रिकॉर्ड करने के लिए उनके आगे-पीछे भागते रहते थे। यह उनके स्वर्णिम दिन थे। समय ने करवट बदली। शांदा साहब वृद्ध हो गए। आमदनी के सारे जरिए बंद हो गए। उनकी विधवा बेटी तथा उसके दोनों बच्चों को घर की तंग आर्थिक स्थिति के कारण काम करना पड़ रहा है। शायर साहब स्वयं भी समाज और लोगों द्वारा उपेक्षित हो गए। यह कहानी उनके पराभव की कहानी है। कहानी में दोनों ही दौरों का बड़ा सुंदर और प्रभावपूर्ण चित्रण है। इन साक्ष्यों के आधार पर हम कह सकते हैं कि कहानी का शीर्षक 'भोगे हुए दिन एकदम उपयुक्त है।
प्रश्न 8. जावेद विद्यालय जाता है, पर सोफिया नहीं क्यों? क्या यह सही है? कहानी के संदर्भ में अपना पक्ष रखें।
उत्तर- प्रस्तुत कहानी "भोगे हुए दिन एक मध्यमवर्गीय मुस्लिम परिवार की कहानी है, जिसके मुखिया शायर शांदा साठव है। किसी स्वर्णिम दिन बिता रहे थे, लेकिन आज उपेक्षा और गरीबी की मार झेल रहे हैं। उनकी विधवा पुत्री तथा उसके दो बच्चे जावेद और सोफिया भी उनके साथ ही रहते हैं। दस वर्षीय जावेद तो स्कूल में पढ़ता है, लेकिन सोफिया स्कूल नहीं जाती है।
सोफिया के स्कूल न जाने के निम्नलिखित कारण है- गरीबी शादा साहब की आमदनी के स्रोत लगभग बंद हो गए हैं। रही-सही कसर निरंतर बढ़ रही महँगाई ने पूरी कर दी है। उनकी विधवा बेटी की कमाई से घर की सभी आवश्यकताएँ पूरी नहीं हो रही हैं। शांदा साहब ने लकड़ी की एक टाल बनवाई हुई है, सोफिया उसी टाल पर बैठती है तथा ग्राहकों को लकड़ियाँ तौलकर बेचती है। घर की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि उसे स्कूल भेजा जा सके। अतः घर की आर्थिक स्थिति ठीक न होना, सोफिया के स्कूल न जाने का एक प्रमुख कारण है।
पुरुषप्रधान समाज की सोच इस पुरुष प्रधान समाज में हर निर्णय पुरुष अपनी मर्जी से ही लेता है। ऐसी स्थिति में जितना ध्यान बेटों की पढ़ाई पर दिया जाता है, उतना बेटियों की शिक्षा पर नहीं। सोफिया के स्कूल न जाने के लिए एक कारण यह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।
मुस्लिम समाज में प्रथा-मुस्लिम समाज में आज भी पर्दा प्रथा व्याप्त है। इस समाज के लोग अपनी बहू बेटियों को घर से बाहर भेजना पसंद नहीं करते हैं। वे अपनी लड़कियों को घर पर ही कामचलाऊ शिक्षा दे देते हैं। सोफिया का भाई तो स्कूल जाता है, लेकिन उसे घर पर ही थोड़ा-बहुत पढ़ा दिया जाता है। संभवतः उपर्युक्त कारण रहे होंगे जिनके कारण सोफिया स्कूल नहीं जाती है।
प्रश्न 9. 'भोगे हुए दिन' कहानी का सारांश अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर- स्वयं लिखें।
प्रश्न 10. 'सात साल की लड़की को भी समय ने कितना निपुण बना दिया था।' इस पंक्ति की सप्रसंग व्याख्या करें। उत्तर - प्रसंग प्रस्तुत पंक्ति 'भोगे हुए दिन' शीर्षक कहानी ली गई है। इस कहानी की लेखिका मेहरुन्निसा परवेज हैं। यह कहानी उनके "मेरी बस्तर की कहानियाँ' नामक कहानी संग्रह में संकलित है। विवेच्य पंक्ति में लेखिका ने सोफिया नामक एक सात वर्षीया लड़की की कार्य-निपुणता का वर्णन किया है।
व्याख्या-सोफिया शायर शांदा साहब की विधवा पुत्री की पुत्री है। किसी जमाने में शांदा साहब और उनके परिवार के दिन बहुत ही अच्छे बीत रहे थे। समय ने करवट ली और शांदा साहब के स्वर्णिम दिन भी बदल गए। उनकी आय के सारे स्रोत लगभग बंद हो गए। रही-सही कसर निरंतर बढ़ रही महंगाई ने पूरी कर दी। उनकी आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गई। शांदा साहब अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण सोफिया को स्कूल नहीं भेज पा रहे थे। आजीविका चलाने के लिए उन्होंने लकड़ी का एक टाल बनवा लिया था। सोफिया घर का काम करती और लकड़ी की टाल पर सधे हाथों से लकड़ियाँ तौलती जबकि उसकी उम्र अभी केवल सात वर्ष की ही थी। उस सात वर्षीया बच्ची के हाथों में एक वयस्क व्यक्ति जैसी ही निपुणता आ गई थी। लेखक के कहने का भाव यह है कि परिस्थितियों ने उसे समय से पूर्व ही कार्य कुशल बना दिया था।
प्रश्न 11. "इस पर का हरेक प्राणी एक-एक क्षण को जीना जानता है।" इस कथन का क्या अर्थ है, स्पष्ट करें।
उत्तर- प्रस्तुत पंक्ति मेहरुन्निसा परवेज द्वारा लिखित कहानी "भोगे हुए दिन" नामक कहानी से ली गई है। इस कहानी में एक प्रतिष्ठित शायर शांदा साहब के पारिवारिक जीवन का बड़ा ही मार्मिक वर्णन किया गया है। वयोवृद्ध शायर शांदा साहब की आर्थिक स्थिति संतोषप्रद नहीं है। उनकी गृहस्थी "येन-केन-प्रकारेण" चल रही है। परिवार
का प्रत्येक सदस्य अपना उत्तरदायित्व बखूबी निभा रहा है। शांदा साहब से मिलने के लिए शमीम उनके पर आए हैं। ये शायर साहब के बहुत बड़े प्रशंसक रहे हैं। वे शायर की लोकप्रियता एवं शोहरत से काफी प्रभावित थे। वे समझते थे कि शांदा साहब की हैसियत उनकी प्रसिद्धि के अनुकूल होगी, किंतु यहाँ आने पर उनकी विपन्नता देखकर उन्हें काफी आश्चर्य और निराशा हुई साथ ही उन्होंने यह भी देखा कि परिवार का हर सदस्य एक-एक क्षण का सदुपयोग कर रहा है। शांदा साहब की पत्नी दिनभर गृहस्थी के काम में व्यस्त रहती उनकी विधवा पुत्री एक उर्दू प्राइमरी स्कूल में अध्यापन का कार्य करती है तथा प्राइवेट ट्यूशन भी कर लेती है। उसका लड़का जावेद विद्यालय मैं तीसरे वर्ग का छात्र है और सात वर्षीय पुत्री सोफिया घर के बाहर खुली जगह पर पेड़ के नीचे जलावन की लकड़ी रखकर बेचती है। इसके अतिरिक्त दोनों बच्चे घर के अन्य कार्यों में भी पूरा सहयोग करते हैं।
यह देखकर शमीम को प्रसन्नता तथा आश्चर्य दोनों होते हैं तथा ये सोचने लगते हैं कि इस परिवार का प्रत्येक सदस्य अपने कार्य में व्यस्त है और एक क्षण भी व्यर्थ नहीं खोना चाहता है।
प्रश्न 12. 'तराजू के एक पल्ले पर धूप थी, दूसरे में आम की परछाई पड़ रही थी। आम की परछाई वाला पल्ला नीचे था मानो धूप और परछाई दोनों को तोता जा रहा हो।' यह एक बिंब है। इसका अर्थ शिक्षक की सहायता से स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- अपने जमाने के सुप्रसिद्ध शायर शांदा साहब ने अपने जीवन में सम्पन्नता और विपन्नता दोनों को बहुत ही नजदीक से देखा और जिया है। एक ओर जहाँ उन्होंने अपनी युवावस्था में अपार प्रसिद्धि और धन कमाया, वहीं वर्तमान में अपनी वृद्धावस्था के कारण गरीबी, लाचारी तथा उपेक्षापूर्ण जीवन जीने को मजबूर है। शांदा साहब से मिलने आया उनका एक प्रशंसक घर के सामने आम के पेड़ के नीचे एक बड़ी सी तराजू टंगी देखता है। तराजू के एक पलड़े पर छाया आई हुई है यह छायायुक्त पलड़ा थोड़ा झुका हुआ है। इस तराजू का दूसरा पलड़ा, जिन पर धूप है, ऊपर की ओर उठा हुआ है। उसे ऐसा लगता है मानों छायायुक्त झुका हुआ पलड़ा शायर के सुखमय दिनों का प्रतिनिधित्व कर रहा है तथा धूप में उठा हुआ पलड़ा उनके अभावयुक्त वर्तमान दिनों को प्रतिबिंबित कर रहा है। सुखमय दिनों और वर्तमान के अभावयुक्त दिनों को तराजू के पलड़ों में धूप और छाँव द्वारा दशनि से एक बिंब बनाता है, जिसका उपयोग लेखिका ने बड़े ही सुंदर ढंग से किया है।
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