आज इस पोस्ट में हम आपको बिहार बोर्ड Class 11th Hindi काव्यखंड का चौथा चैप्टर सहजोबाइ के पद का सम्पूर्ण भावार्थ, सहजोबाइ का जीवन परिचय और सहजोबाइ के पद का प्रश्न उत्तर भी बताने वाले हैं ,Bihar board Class 11th Hindi Chapter Sahjobai ke Pad
"ज्ञानी ब्रह्म के जिस स्वरूप का अपने चिंतन के बल से उद्घाटन करके तटस्य हो जाता है उसी स्वरूप को भावुक भक्त लेता है और ध्यान या भावमग्नता के समय उसमें अपनी सारी सत्ता को-हृदय, प्राण, बुद्धि, कल्पना, संकल्प इत्यादि सारी वृत्तियों को समाहित और घनीभूत करके बड़े वेग के साथ लीन कर देता है। इस प्रकार अपनी व्यक्तिगत सत्ता की भावना का पूर्ण बिसर्जन हो जाने पर केवल उसी ध्येय स्वरूप की अत्यंत तीव्र अनुभूति मात्र शेष रह जाती है। यह एकांत अनुभूति प्रत्यक्ष दर्शन के ही तुल्य होती है।" (भक्ति का विकास)
-आचार्य रामचंद्र शुक्ल
4. सहजोबाइ
कवयित्री - परिचय
जीवन-परिचय: सहजोबाई एक सन्त कवयित्री थीं इनका जन्म 1725 ई. में दिल्ली के समीप परीक्षितपुरा में हुआ था । साहित्य में कोई भी प्रवृत्ति किसी भी काल में किसी न किसी रूप में जीवित अवश्य रहती है। इनके जीवन के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। अपने विषय में इन्होंने केवल इतनी ही सूचना दी है-
"हरि प्रसाद की सुता नाम है सहजोबाई ।
दूसर कुल में जन्म सदा गुरु चरन सहाई।।"
प्रसिद्ध संत कवि चरनदास की ये शिष्या बन आजीवन ब्रह्मचारिणी बन इन्हीं की सेवा में लगी रहीं। निर्गुण ज्ञानाश्रयी भक्तिधारा की कवयित्री होकर भी कृष्ण के प्रति जो इनका रागानुरक्ति है वह इन्हें मीरा की तरह प्रस्तुत करती है और गुरु के प्रति इनका जो भाव है, वह इन्हें कबीर की कोटि में पहुँचा देता है। ये गुरु को ईश्वर से कहीं अधिक महत्त्व देती हुई कहती हैं-
राम तजूँ पै गुरु न बिसाएँ। गुरु के सम हरि कूँ न निहारूँ ।।
चरनदास पर तन मन वारूँ। गुरु न तजूँ हरि कूँ तजि डारूँ ।।
सहजोबाई ने अपना सारा जीवन गुरु चरनदास और उनसे प्राप्त ईश्वरी अनुराग के समर्पित कर दिया। सहजोबाई ने अपनी रचनाओं में गुरुभक्ति, संसार की ओर से पूर्ण विरक्ति तथा साधु, निर्गुण सगुण भेद, मानव-जीवन, प्रेम, नाम स्मरण जैसे पारंपरिक विषयों को ही स्थान दिया है।
काव्यगत विशेषताएँ: सहजोबाई ने अपनी सभी रचनाओं में सांसारिकता से विराग, नामजप तथा निर्गुण-सगुण ब्रह्म में अभेद भाव की अभिव्यंजना की है। सहजोबाई में जो भक्ति है वह ज्ञान पर आधारित है, किंतु उसका प्रकटीकरण अविचल संकल्प और समर्पण की स्पृहणीय शक्ति के रूप में हुआ है। इन्होंने अपनी रचनाएँ दोहे, चौपाई और कुंडलियों में लिखी हैं। 'सहज प्रकाश' इनकी एकमात्र उपलब्ध रचना है। इनकी भाषा शैली बहुत ही अर्थपूर्ण है
सहजोबाई ने अपना सारा जीवन गुरु और उनके माध्यम से ईश्वर की भक्ति को समर्पित कर दिया। सांसारिकता से विराग, नाम जप तथा निगुण-सगुण ब्रह्म के अभेद भाव सहजोबाई की अन्यतम विशेषताएँ है। सहजोबाई के काव्य में एक बड़ा अंश ऐसा है, जिसमें श्रीकृष्ण उनके आराध्य प्रतीत होते हैं।
पद-1
मुकुट लटक अटकी मन माहीं।
नृत तन नटवर मदन मनोहर कुंडल झलक अलक बिथुराई । नाक बुलाक हलत मुक्ताहल, होठ मटक गति भौंह चलाई।। ठुमक ठुमुक पग परत धरनि पर, बाँह उठाय करत चतुराई ।। झुनक झुनक नूपुर झनकारत, तता थेई थेई रीझ रिझाई।
चरनदास सहजो हिय अंतर भवनकारी जित रहौ सदाई।।
* सहजोबाई के पहला पद का शब्दार्थ निम्नलिखित है
शब्दार्थ : नृत - नृत्य , अलक - केश । नटवर - लीलाधारी कृष्ण। रीझ - मोहित । बिथुराई - बिखरा हुआ। धरनि- धरती, पृथ्वी । बुलाक - नाक का आभूषण । नूपुर - घुँघरू । मुक्ताहल - मोती । हिय - हृदय । हलत - हिलना । भवनकारी- हृदय को भवन बनाकर रहने वाले । सदाई- सर्वदा, हमेशा।
- सहजोबाई के पहला पद का प्रसंग निम्नलिखित है
प्रसंग : प्रस्तुत पद निगुर्ण ज्ञानमार्गी भक्ति की अलख जगाने वाली कवयित्री सहजोबाई द्वारा रचित है। सहजोबाई कृष्ण के रूप-सौंदर्य पर ऐसी मोहित हुई कि निर्गुण का पद-पाठ भूलकर श्रीकृष्ण के सौंदर्य का ही वर्णन कर बैठती हैं। कृष्ण के रूप-सौंदर्य का वर्णन करते हुए कवयित्री सहजोबाई कहती हैं-
- सहजोबाई के पहला पद का व्याख्या निम्नलिखित है
व्याख्या : बालक कृष्ण के माथे पर जो मुकुट है, उसमें झालर लगी हैं। फुंदने के हिलने-डुलने से उनका सौंदर्य और ज्यादा बढ़ जाता है। सहजोबाई का चित तो उसी लटकन में अटककर रह गया है। बालक कृष्ण अपने छोटे पैरों के बल नाचने में व्यस्त हैं और इसी क्रम में कृष्ण के कानों के कुण्डल श्यामल घुघराले बालों को तितर-बितर करते हुए बार-बार झलक मारते हैं और इससे बालक कृष्ण का सौन्दर्य और भी बढ़ जाता है। उनकी नाक में मोती जड़ित नाक का आभूषण है जो होंठों के हिलने से हिलने लगता है। उनकी भहिं भी कमान की भाँति हैं जिनके हिलने से श्रीकृष्ण का स्वरूप अद्वितीय हो उठता है। वे धरती पर ठुमक ठुमुक कर चलते हैं और बाजू भी बड़ी चतुराई से हिलाते हैं। बाजू उठाते समय वे कोई न कोई बाल-सुलभ चंचलता कर ही बैठते हैं। जब इन्हें नाचने के लिए कहा जाता है तो इनके पैरों में बंधी पायल के घुंघरू बजने लगते हैं और सभी को आनन्द-विभोर कर देते हैं।
कवयित्री सहजोबाई अपने गुरु चरनदास की कृपा से ही भगवान कृष्ण का स्वरूप देखने में सफल हो गई हैं। उनका यह रूप तो हृदय को भवन बनाकर सदा के लिए बसाने योग्य है। सहजोबाई श्रीकृष्ण से प्रार्थना करती हुई कहती है कि श्रीकृष्ण का यही रूप उनके हृदय में हमेशा के लिए बस जाए।
पद- 2
राम तजूॅं पै गुरु न बिसारूॅं। गुरु के सम हरि हूँ न निहारूँ।।
हरि ने जन्म दियो जग माहीं। गुरु ने आवागमन छुटाहीं।।
हरि ने पाँच चोर दिए साथा। गुरु ने लई छुटाय अनाथा ।।
हरि ने कुटुंब जाल में गेरी । गुरु ने काटी ममता बेरी।।
हरि ने रोग भोग उरझायौ। गुरु जोगी कर सबै छुटायौ।।
हरि ने कर्म भर्म भरमायौ। गुरु ने आतम रूप लखायौ।।
हरि ने मोरूॅं आप छिपायौ। गुरु दीपक दै ताहि दिखायौ।।
फिर हरि बंध मुक्तिगति लाये। गुरु ने सबही धर्म मिटाये।। चरनदास पर तन मन वारूं गुरु न तजूँ हरिकूॅं तजि डारूं।।
- सहजोबाई के दूसरा पद का शब्दार्थ निम्नलिखित है
शब्दार्थ : बिसारूॅं - भूलूँ । माॅंहि - में , जाल में गेरी - जाल में डालना ।लखायौ - दिखाया। आप छिपायौ - आत्मरूप छिपा दिया। । बेरी - बेड़ी। उरझायौ - उलझा दिया है। तजि डारूं - छोड़ दूँ । मोरूॅं- मुझसे।
- सहजोबाई के दूसरा पद का प्रसंग निम्नलिखित है
प्रसंग : पूर्ववत् । प्रस्तुत पद में निर्गुण पथी कवयित्री सहजोबाई भगवान और अपने गुरु के बीच प्राथमिकता के प्रश्न पर गुरु को ही श्रेष्ठ बताती हैं।
- सहजोबाई के दूसरा पद का व्याख्या निम्नलिखित है
व्याख्या : वे कहती हैं कि यदि उन्हें राम मिल भी जाएँ अर्थात् भगवान के दर्शन हो भी जाएँ तो भी वे अपने गुरु को भुला नहीं सकतीं। गुरु का महत्त्व तो अक्षुण्ण है। अगर कोई उनसे गुरु को भुलाने के लिए कहेगा तो वह उस भगवान को ही त्याग देंगी, लेकिन अपने गुरु को कभी नहीं भूलेंगी। यदि गुरु उनके सामने हैं तो उनके रहते वह भगवान की ओर देखना भी पसन्द नहीं करेंगी।
यह सत्य है कि भगवान ने इस संसार में जन्म दिया है, लेकिन जन्म के पश्चात् यही प्रभु मृत्यु के द्वारा हमें अपने पास बुला लेता है और चौरासी लाख योनियों घुमाता रहता है, किंतु गुरु कृपा से मनुष्य आवागमन के इस चक्कर से छुटकारा पाकर हमेशा के लिए मुक्ति को प्राप्त करता है। ईश्वर ने मनुष्य को पैदा किया, साथ ही पाँच चोर-काम, क्रोध, मोह, मद और मत्सर भी उसे दे दिए, परन्तु गुरु ने ही इन चोरों (दुर्गुणों) से मनुष्य को मुक्त कराया। अर्थात् इन दोषों से मुक्त रहने का मार्ग दिखा दिया। भगवान ने तो पैदा करके एक परिवार रूपी बन्धन में भेज दिया जहाँ मनुष्य को उसे सांसारिक मोह-माया ने घेर लिया। गुरु ने ही इन बन्धनों से उसे मुक्त कराया। यही नहीं प्रभु ने पैदा करके मनुष्य को रोग और भोग में तथा सुख और दुख में उलझा दिया। योगी गुरु ने ही योग द्वारा रोग तथा भोग दोनों से मुक्त करा दिया। ईश्वर ने मनुष्य को विभिन्न कर्मों के भ्रम में डाल दिया। वास्तव में गुरु ने ही मनुष्य को आत्मरूप का दर्शन कराया और बताया कि वास्तव में मनुष्य क्या है, कवयित्री सहजोबाई आगे कहती हैं-
वास्तव में ईश्वर ने मेरा अपनत्व ही मुझसे छिपा दिया। लेकिन मेरे गुरु चरनदास ने अपने ज्ञान रूपी दीपक के प्रकाश में मुझे आत्मरूप दिखा दिया। ईश्वर ने मुझे भरमाने की बहुत चेष्टा की और बताया कि बंधन में ही मुक्ति है अर्थात् पारिवारिक दायित्वों को निभाना ही जीव की असली मुक्ति है, लेकिन गुरु ने मुझे इस बन्धन से मुक्त होने का सही मार्ग बताया। अंत में कवयित्री सहजोबाई कहती हैं कि जिन गुरु चरनदास ने मेरा सही मार्गदर्शन किया, उन पर मैं स्वयं को तन-मन से न्योछावर करती हूँ। मैं भगवान को तो छोड़ सकती हूँ, परन्तु गुरु को किसी भी स्थिति में नहीं छोड़ सकती।
अभ्यास
प्रश्न 1. सहजोबाई के मन में उनके आराध्य की कैसी छवि बसी हुई है?
उत्तर- संत कवयित्री के मन में बाल कृष्ण की ऐसी मंजुल छवि बसी हुई है जिसमें वह माथे पर मुकुट, उससे लटकती झालर की लड़ियों, कानों में कुण्डल, घुंघराली लटें, नाक में मोती का बुलाक तथा पैरों में नूपुर (घुंघरू ) युक्त पायल धारण किये हुए हैं और ताता थैया की लय पर नाच रहे हैं। उनका यह बाल रूप देखने वाले को भी रिझाने पर बाध्य कर देता है।
प्रश्न 2. सहजोबाई ने किससे सदा सहायक बने रहने की प्रार्थना की है?
उत्तर- कवयित्री सहजोबाई ने बाल श्रीकृष्ण से सदा सहायक बने रहने की प्रार्थना की है।
प्रश्न 3. मुनक झुनक नूपुर धनकारत, तता येई बेई रीन रिझाई। चरनदास सहजो हिय अंतर, भवनकारी जित रहो सदाई।। इन पंक्तियों का सौंदर्य स्पष्ट करें।
उत्तर- 1. इन पंक्तियों में निर्गुण ब्रह्म उपासिका सहजोबाई की कृष्ण के बाल रूप के प्रति भाव-विह्वलती तथा भाव-प्रवणता परिलक्षित होती है। बालक कृष्ण अपने पैरों को इस प्रकार पटक रहे हैं कि उनके पैरों में बंधी पायल के घुंघरू एक विशेष प्रकार की लय में अंकृत हो रहे हैं।
ताता-थैया की लय नाचकर वे सभी को मंत्रमुग्ध किए हुए हैं। सहजोबाई श्रीकृष्ण का यही मनमोहक स्वरूप अपने हृदय रूपी भवन में सदा के लिए बनाकर रखना चाहती हैं।
2. इन पंक्तियों में शब्दों का चुनाव ही अपने आप में सौंदर्य को बढ़ा रहा है।
3. 'तता येई घेई', 'रीझ रिझाई शब्दों का चुनाव कवयित्री ने बड़े सोच-विचार कर किया है। इन शब्दों से पद की शोभा काफी बढ़ गई है।
प्रश्न 4. सहजोबाई ने हरि से उच्च स्थान गुरु को दिया है। इसके लिए वे क्या-क्या तर्क देती हैं?
उत्तर- सहजोबाई ने हरि से उच्च स्थान गुरु को दिया है इसके लिए दूसरे पद में ये निम्नलिखित तर्क देती हैं-
1. कवयित्री सहजोबाई गुरु को ईश्वर से भी श्रेष्ठ सिद्ध करती हैं। वे कहती हैं कि ईश्वर तो जीवों को जन्म देकर सांसारिक मोह-माया के बन्धनों में फँसा देता है। इस संसार में आकर जीव अपने अस्तित्व तथा आत्म तत्व को भूल जाता है। केवल गुरु ही मनुष्य को इस आवागमन के चक्र से मुक्त कराता है।
2. गुरु ही मनुष्य को सभी सांसारिक बन्धनों से मुक्त कराता है।
3. यह गुरु ही है जो अपने ज्ञान के द्वारा मनुष्य का अहंकार मिटाकर उसे सत्मार्ग पर लाता है। 4. गुरु ही ईश्वर रचित मायाजाल से छुटकारा दिलाता है। इसीलिए गुरु ईश्वर से श्रेष्ठ स्थान का अधिकारी है।
प्रश्न 5. 'हरि ने पाँच चोर दिए साथा। गुरु ने लई छुटाए मनाया। यहाँ किन पाँच चोरों की ओर संकेत है? गुरु उनसे कैसे बचाते हैं?
उत्तर- संत साहित्य में अवगुणों को 'चोर' शब्द से सज्ञापित किया जाता है। प्रस्तुत पद में जिन पाँच चोरों का वर्णन आया है, यो इस प्रकार हैं-काम, क्रोध, अहंकार, लोभ (मोह) और ईर्ष्या (मत्सर)।
1. ये पाँचों चोर ईश्वर ने मनुष्य को दिए हैं और गुरु ही इन पाँचों चोरों से मुक्त होने का रास्ता बताता है। 2. शारीरिक या इन्द्रिय सुखों की पूर्ति की इच्छा ही काम कहलाती है। अपनी इच्छा के विपरीत कुछ भी होते देखकर कोष आना स्वाभाविक है।
3. दूसरे की वस्तु की इच्छा करना लाभ कहलाता है। किसी भी प्रकार की उपलब्धि प्राप्त हो जाने पर अहंकार आ जाता है। यदि दूसरे व्यक्ति के पास हमसे कुछ अधिक हो या फिर यह अधिक समृद्ध तथा सम्पन्न हो तो उसे देखकर ईर्ष्या का ही भाव उत्पन्न होता है।
प्रश्न 6. हरि ने कर्म धर्म भरपायी। गुरु ने आतम रूप लखायी।। हरि ने मो आप छिपायो गुरु दीपक दे ताहि दिखायौ ।। इन पंक्तियों की व्याख्या करें।
उत्तर- व्याख्येय पंक्तियों में कवियत्री सहजोबाई ने ईश्वर, जीव और गुरु के बीच के सम्बन्ध का सहज वर्णन किया है। ईश्वर ने मनुष्य को अनेक प्रकार के कर्मों में उलझा दिया है। जिससे वह अपने अस्तित्व तर्क को भूल गया। गुरु ने मुझे आत्मरूप का दर्शन कराया। ईश्वर ने तो मेरे साथ धोखा किया। उसने मुझसे मेरा निजत्व ही छिपा लिया, जिसे गुरु ने अपने ज्ञान के दीपक की लौ में मुझे दिखा दिया।
ईश्वर ने इस संसार में कर्म को प्रधानता दी है। मनुष्य का प्रत्येक कर्म पूर्ववर्ती कर्म का परिणाम और परवर्ती कर्म का कारण होता है, जिसे कार्यकारण सिद्धान्त कहते हैं। लेकिन कर्मों के संजाल में उलझकर मनुष्य अपने मूल उद्देश्य से भटक जाता है। जीव का परम उद्देश्य ब्रह्म में पुनर्मिलन ही है। किन्तु ईश्वर जीव को कर्मों के मायाजाल में उलझाकर भटका देते हैं। मेरे गुरु अन्य हैं जिन्होंने मेरा आत्मरूप ब्रह्माश मुझे दिखा दिया।
प्रश्न 7. पठित पद में सहजोबाई ने गुरु पर स्वयं को न्यौछावर किया है। वह पंक्ति लिखें।
उत्तर- पठित पद में सहजोबाई ने गुरु की महिमा और महानता के आगे अपना सर्वोत्तम समर्पण किया है, जो उसकी गुरु भक्ति की पराकाष्ठा है। वह कहती हैं- चरनदास पर तन मन वारूँ गुरु न त हरि कै तजि डा।"
प्रश्न 8. पठित पद के आधार पर सहजोबाई की गुरुभक्ति का मूल्यांकन करें।
उत्तर- सम्पूर्ण भक्ति साहित्य में गुरु (सद्गुरु) को आदरणीय स्थान प्राप्त है। निर्गुण संतमत, ज्ञानाश्रयी, सूफीमत, प्रेमाश्रयी, सगुण कृष्णाश्रयी, ओर रामाश्रयी आदि सभी भक्ति उपधाराओं में गुरु का ही महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। किन्तु सहजोबाई की गुरु के प्रति जो निष्ठा और वृत्ति है, वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। गुरु का त्याग उनकी दृष्टि में सहजीय है। लेकिन सहजोबाई का कहना है कि में ईश्वर अथवा ब्रह्म को त्यागने के लिए तैयार हूँ किन्तु मुझे गुरु का विस्मरण मात्र भी स्वीकार्य नहीं है। गुरु ही उसे वह ज्ञान रूपी दीपक दिया जिससे उसे आत्मबोध हुआ। यदि उसे गुरु नहीं मिले होते तो ईश्वर सृजित संसार में वह खो चुकी होती। ने
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