तोड़ती पत्थर - कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला Class 11th Hindi Chapter - 7 Bihar Board || तोड़ती पत्थर का भावार्थ और प्रश्न उत्तर


आज हम लोग एक नए अंदाज के साथ बिहार बोर्ड Class 11th Hindi काव्यखंड का चैप्टर - 7 तोड़ती पत्थर का सम्पूर्ण भावार्थ, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जीवन परिचय और तोड़ती पत्थर का प्रश्न उत्तर देखने वाले हैं ,Bihar board Class 11th Hindi Chapter todti pathar Suryakant Tripathi Nirala 


7. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

कवि-परिचय 

जीवन-परिचय -  

  • सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' का जन्म 1897 ई. में बंगाल में मेदिनीपुर जिले के महिषादल में हुआ था।
  •   इनके पिता पं. रामसहाय त्रिपाठी महिषादल राज्य के एक सामान्य कर्मचारी थे। तीन वर्ष की आयु में ही इनकी माता का देहांत हो गया। 
  • उनकी प्रारंभिक शिक्षा बंगाल में हुई। बंगाल में रहकर उन्होंने बंगला, संस्कृत, संगीत और दर्शनशास्त्र का गहन अध्ययन किया। 14 वर्ष की आयु में उनका विवाह मनोहरा देवी से हुआ. लेकिन उनका पारिवारिक जीवन कभी भी सुखमय नहीं रहा। 1918 ई. में उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया और उसके बाद उनके पिता, चाचा और चचेरे भाई भी एक-एक करके उन्हें छोड़कर इस संसार से चल दरो। उनकी इकलौती पुत्री सरोज की मृत्यु ने तो उनके हृदय के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। इस प्रकार निराला जीवन-भर क्रूर परिस्थितियों से संघर्षरत रहे। 
  • 15 अक्टूबर, 1961 ई. को इनका स्वर्गवास हो गया।


  • प्रमुख रचनाएँ - निराला का रचना संसार बहुत ही विस्तृत है। उन्होंने पद्य और गद्य दोनों ही विधाओं में विपुल साहित्य की रचना की है। उनकी रचनाएँ निराला रचनावली के आठ खंडों में प्रकाशित हैं। निराला अपनी कुछ कविताओं के कारण बहुत प्रसिद्धि प्राप्त कवि हो गए हैं। 'तुलसीदास' और 'राम की शक्ति पूजा' उनकी प्रबंधात्मक कविताएँ हैं, जिनको साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। 'सरोज-स्मृति' हिंदी की एकमात्र ऐसी कविता है जो किसी पिता ने अपनी पुत्री की मृत्यु पर लिखी है। निराला की प्रमुख काव्य-कृतियाँ हैं-अनामिका, गीतिका, परिमल, तुलसीदास, अणिमा, कुकुरमुत्ता, बेला, नए पत्ते, आराधना, अर्चना, गीतगुंज। इन ग्रन्थों में कई ऐसी कविताएँ हैं जो निराला को जन कवि बना देती हैं और जिनको लोगों ने अपने कंठ में स्थान दिया है। यथा तोड़ती पत्थर, जूही की कली, कुकुरमुत्ता, मैं अकेला, भिक्षुक, बादल-राग आदि।



भाषा-शैली - निराला जी ने काव्य की पुरानी परम्पराओं को तोड़कर काव्य-शिल्प के स्तर पर भी विद्रोही तेवर अपनाते हुए काव्य-शैली को नई दिशा प्रदान की। उनके काव्य में भाषा का कसाव, शब्दों की मितव्ययिता और अर्थ की प्रधानता विद्यमान है। निराला जी ने संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दों के साथ-साथ संधि- समासयुक्त शब्दों का भी प्रयोग किया है।


काव्य विशेषताएँ - निराला छायावाद के महत्त्वपूर्ण आधार स्तम्भों में से एक हैं। उनकी कविताओं में प्रेम, प्रकृति-चित्रण तथा रहस्यवाद जैसी छायावादी प्रवृत्तियाँ बाद में निराला जी प्रगतिवाद की ओर झुक गए थे। प्रगतिवादी विचारधारा के अनुसार उन्होंने शोषकों के विरोध और शोषितों के पक्ष में भी अनेक कविताएँ लिखी हैं, जिनमें 'भिक्षुक', 'विधवा' और 'तोड़ती पत्थर' जैसी कविताओं में शोषितों के प्रति सहानुभूति है, तो 'जागो फिर एक बार' जैसी कविताओं में कवि द्वारा दबे-कुचलों को जगाने का आह्वान किया गया है-


निरालाजी की प्रकृति संबंधी कविताएँ भी प्रकृति के मनोरम रूप प्रस्तुत करती हैं। उनकी 'संध्या-सुंदरी' और बादल राग में प्रकृति का स्वाभाविक वर्णन किया गया है।


तोड़ती पत्थर


वह तोड़ती पत्थर;
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पद पर-
वह तोड़ती पत्थर
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,
गुरु हवीड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहारः-
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।
चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू,
रुई-ज्यों जलती हुई भू 
गर्द चिनग छा गई,
प्रायः हुई दुपहर:- 
वह तोड़ती पत्थर ।


शब्दार्थ - पथ - रास्ता । श्याम तन - सांवला शरीर । नत  नयन - झुकी आँखें। कर्म-रत-मन - काम में लीन मन ।
गुरु - बड़ा। तरु मालिका - पेड़ों की पंक्ति। अट्टालिका - ऊँचा बहुमंजिला भवन । प्राकार - परकोट, चारदीवारी।
दिवा - दिन । भू- धरती । गर्द - धूल। 


प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियाँ निराला की प्रसिद्ध प्रगीतात्मक रचना 'वह तोड़ती पत्थर से अवतरित हैं। इस प्रगीत में चिलचिलाती दोपहरी में सड़क के किनारे पत्थर तोड़ती एक युवा स्त्री का क्रांतिकारी संकेतों और आशयों से भरा वस्तुपरक यथार्थवादी अंकन किया है।



व्याख्या: कवि कहता है कि एक गरीब मजदूर स्त्री ज्येष्ठ मास की चिलचिलाती धूप में बिना किसी छाया के सड़क के किनारे बैठी पत्थर तोड़ रही है। यह दृश्य कवि vec 7 इलाहाबाद के एक पथ पर देखा। उस स्त्री के कोमल हाथों में एक भारी हथौड़ा है जो बार-बार ऊपर उठता है और गिरकर पत्थर को तोड़ देता है। उसके ठीक सामने पेड़ों की लंबी कतार है, ऊँचे-ऊँचे भवन बने हुए हैं, बड़ी-बड़ी चार दीवारी है। अर्थात् वहाँ सुख-वैभव सुरक्षित है। वह साँवले रंग और भरे बदन वाली युवती आँखें नीची किए अपने पत्थर तोड़ने के काम में बड़े मनोयोग से लगी हुई है।

देखते-देखते ही दोपहर हो गई। सूर्य की गर्मी भी बढ़ने लगी। शरीर को झुलसा देने वाली लू चलने लगी और धूल के बवंडर उठने लगे। ऐसा लग रहा था मानो स्वयं धरती ही रुई की भाँति जल रही है। किन्तु ऐसी विषम परिस्थिति में भी उसका पत्थर तोड़ना जारी रहा।

 2


देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी अंकार;
एक क्षण के बाद वह काँपी सुधर 
दुलक माथे से गिरे सीकर, 
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
'मैं तोड़ती पत्थर।'


शब्दार्थ : छिन्नतार -टूटी निरंतरता। सीकर - पसीना।

प्रसंग - पूर्ववत् ।


व्याख्या : जब उस स्त्री ने कवि को उसकी तरफ देखते हुए देखा तो उसने पहले सामने के गगनचुम्बी भवन को देखा और फिर एक अजीब दृष्टि से जिसमें निराशा, व्यंग्य, कटाक्ष तथा नियतिवाद जैसे भाव एक साथ समाहित थे, उसे देखा। कवि को ऐसा लगा जैसे किसी को मार पड़ी हो लेकिन किसी विवशतावश वह रो न पाया हो, वह भाव उसकी आँखों से व्यक्त हो रहा था।

इसके बाद कवि जागते-जागते ही स्वप्नावस्था में चला गया। उसने देखा कि एक सितार साधा जा चुका है तथा उसके तारों से एक अनसुनी-सी शंकार निकल रही है। कवि का स्वप्न टूटा और एक क्षण के लिए वह कर्मरत स्त्री कॉप गई। गर्मी की अतिशयता से उसके माथे से पसीने की बूँदें चूँ रही थीं। उसे अपनी नियति स्वीकार है, वह पुनः अपने प्रिय कर्म में लीन हो गई। कवि को सुनाई पड़ा मानो उसने कहा हो- 'मैं तोड़ती पत्थर ।'


अभ्यास 


प्रश्न 1. पत्थर तोड़ने वाली स्त्री का परिचय कवि ने किस तरह दिया है?

उत्तर- कवि निराला जी ने पत्थर तोड़ने वाली स्त्री का परिचय देते हुए कहा कि सावले तन वाली, भरे बँधे यौवन वाली स्त्री की आँखें झुकी हुई हैं और उसका मन अपने प्रिय काम में लगा हुआ है। उसके एक हाथ में एक भारी हथौड़ा है। जिससे वह पत्थरों को तोड़ रही है। धूप और गर्मी से उसका चेहरा तमतमाया हुआ है। पसीने की बून्हें माथे से चू रही हैं। फिर भी वह अपने कर्म में तल्लीन है।


प्रश्न 2. 'श्याम तन, भर बँधा यौवन, नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन।' निराला ने पत्थर तोड़ने वाली स्त्री का ऐसा अंकन क्यों किया है? आपके विचार से ऐसा लिखने की क्या सायंकता है?

उत्तर- निराला ने अपने पूरे जीवन में अभाव व दुख ही देखे हैं इसीलिए उनकी रचनाओं में काल्पनिकता का कोई स्थान नहीं है केवल वास्तविकता ही है। कविता में वर्णित स्त्री में भयंकर गर्मी व लू में हथौड़े से पत्थर तोड़ रही है। इसलिए उस स्त्री का शरीर साँयला ही होगा। मेहनतकश कार्य करने के कारण उसका शरीर पुष्ट भी अवश्य होगा। साथ ही उसकी आँखें झुकी हुई हैं ताकि समाज के बुरे लोगों की उस पर नजर न पड़े। यह पूरी तन्मयता से अपने कार्य में तल्लीन है। इस प्रकार कवि ने पत्थर तोड़ती स्त्री का जो शब्द चित्र खींचा है वह अत्यंत समीचीन प्रतीत होता hat z ।


प्रश्न 3. स्त्री अपने गुरु हथोड़े से किस प्रकार प्रहार कर रही है?

उत्तर- स्त्री अपने गुरु हथौड़े से समाज की आर्थिक विषमता पर प्रहार कर रही है। वह शरीर को झुलसाने वाली भीषण गर्मी के कष्टदायक परिवेश में पत्थर तोड़ने का कार्य कर रही है। ठीक उसके सामने अमीरों को सुख-सुविधाएँ प्रदान करने वाली अनेक विशाल अट्टालिकाएँ खड़ी हैं जो कवि को उसकी गरीबी पर व्यंग्य करती प्रतीत होती हैं। एक ओर उस स्त्री के मार्मिक एवं कठोर संघर्ष की व्यथा-कथा है तो दूसरी ओर अमीरों की विशाल अट्टालिकाओं तथा सुख-सुविधाओं का चित्रण है। अतः प्रस्तुत पंक्ति में देश की आर्थिक विषमता का सजीव चित्रण है। इसके साथ ही यह विषमता पर एक चुभता व्यंग्य भी है।


प्रश्न 4. कवि को अपनी ओर देखते हुए देखकर स्त्री सामने खड़े भवन को देखने लगती है। ऐसा क्यों?

उत्तर- जब निराला कर्मरत स्त्री को श्रद्धा से देख रहे होते हैं तो वह स्त्री उनकी तरफ देखकर सामने खड़े भवन को देखने लगती है। इससे यह संकेत करना चाहती है कि ईश्वर की मसृणतम रचना होने के कारण मेरा स्थान यहाँ सड़क पर नहीं, बल्कि वहाँ होना चाहिए था।

किन्तु भूख नियति, लाचारी बेचारी ने उसे एक मजदूर बना दिया। साथ ही वह निराला को बताना चाहती है कि सामने का खड़ा भवन उसके श्रम का ही नतीजा है। नारी निर्मात्री भी है और निर्माण सहयोगिनी भी।

प्रश्न 5. 'विनतार' का क्या अर्थ है? कविता के संदर्भ में स्पष्ट करें।

उत्तर- 'छिन्नतार' का अर्थ है-टूटी निरंतरता जब व्यक्ति मन लगाकर अपने कर्म में लगा रहता है तो उसे किसी भी प्रकार का व्यवधान अच्छा नहीं लगता। कवि की दृष्टि पवित्र थी लेकिन फिर भी उसने पत्थर तोड़ती स्त्री के काम में व्यवधान डाल दिया। यह तन्मयता से पत्थर तोड़ती हुई सामने के महल को देख रही थी, लेकिन कवि ने इधर देखकर व्यवधान उत्पन्न कर दिया।


प्रश्न 6.
'देखकर कोई नहीं
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं।"
इन पंक्तियों का मर्म उद्घाटित करें।

उत्तर- जब पत्थर तोड़ती स्त्री ने निराला को अपनी ओर देखते पाया तो क्षणभर में समझ गयी कि यह भी मेरी तरह पीड़ित, शोषित, जीवन सुख से वंचित व्यक्ति है। इसकी आँखों में उसके लिए सहानुभूति के भाव हैं जो आँसू उस समय नहीं निकल पाए थे जब मार पड़ी थी, जब विपत्ति आयी थी, वे आँसू अब सहानुभूति पाकर आँखों से निकलने को बेताब हो गये हैं। दुःख से दुःख का यह साहचर्य हृदय के विस्तार को दर्शाता है।



प्रश्न 7.

"सजा सहज सितार सुनी मैंने वह नहीं जो पी सुनी झंकार' यहाँ किस सितार की ओर संकेत है? इन पंक्तियों का भाव स्पष्ट करें।

उत्तर- महाप्राण निराला द्वारा रचित कविता 'तोड़ती पत्थर' की इन पंक्तियों में कवि ने हृदय रूपी सितार की ओर संकेत किया है इस संसार में सितार रूपी बाद्य यंत्र होता है, उससे जो भी झंकार निःसृत होती है उसमें नवीनता के लिए कोई स्थान नहीं होता। राग के अनुरूप हो झंकार का निकलना तय है। लेकिन हृदय रूपी सितार से सहिष्णुता की जो प्रकार निकली, उस स्त्री की दीन-हीन अवस्था को देखकर जो हृदय द्रवित हुआ, वह अनुभूति अनिवर्चनीय थी। निजत्व का निरसन और विराट का दर्शन यही इन पंक्तियों का प्रमुख भाव है।


प्रश्न 8.
एक क्षण के बाद सह कॉपी सुधर
दुलक मावे से गिरे सीकर
तीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा
मैं तोड़ती पत्थर'
इन पंक्तियों की सप्रसंग व्याख्या करें। 

उत्तर- उत्तर के लिए देखें व्याख्या भाग।


प्रश्न 9. कविता की अन्तिम पंक्ति मैं तोड़ती पत्थर'- इसके पूर्व तीन बार 'वह तोड़ती पत्थर' का प्रयोग हुआ है, इस अन्तिम पंक्ति का वैशिष्ट्य स्पष्ट करें।

 उत्तर- निराला की कविता की शुरुआत 'वह तोड़ती पत्थर' से होती है और इसका अन्त 'मै तोड़ती पत्थर' से होता है।

साधारण शब्दों में कहा जा सकता है कि आँखों से हुए क्षणिक परिचय के बाद स्त्री अपनी वस्तुस्थिति स्पष्ट करते हुए ऐसा कहती है। लेकिन वास्तविकता यह है कि दूसरे के दुख और कष्ट को अपना मानना, स्वयं को एक दुखी, गरीब, किंतु स्वाभिमानी स्त्री के स्थान पर प्रस्तुत करना बहुत ही महान कार्य है।

यहाँ 'मैं' केवल पत्थर तोडने वाली नारी ही नहीं है बल्कि यह सम्पूर्ण शोषित, दलित किन्तु कर्मशील व्यक्तियों का गर्वोन्नत 'मैं' है। इस 'मैं' में निराला का 'मैं' भी सम्मिलित है।

प्रश्न 10. निराला रचित 'वह तोड़ती पत्थर' शीर्षक कविता का भावार्य अपने शब्दों में लिखें।

उत्तर - इलाहाबाद की सड़क पर एक गरीब मजबूर स्त्री ज्येष्ठ मास की चिलचिलाती धूप में छाया के बिना पत्थर तोड़ रही है। उसके हाथों में एक भारी हथौड़ा है जो बार-बार ऊपर उठता है और गिरकर पत्थर को चकनाचूर करता है। उसके ठीक सामने पेड़ों की एक लम्बी कतार है, ऊँचे-ऊँचे भवन हैं, अर्थात् सुख-भोग वहाँ सुरक्षित हैं। यह साँवले रंग की भरे बदन वाली स्त्री आँखें नीची किए अपने पत्थर तोड़ने के कार्य में तल्लीन है। देखते ही देखते दोपहर हो गई और सूर्य भी प्रचंड हुए। शरीर को झुलसा देने वाली लू चलने लगी तथा धूल के अत्यधिक बवंडर उठने लगे। इतनी विषम परिस्थिति में भी उसका पत्थर तोड़ना जारी रहा। अर्थात् द्विवेदी युग में मार्क्सवादी चेतना से प्रभावित काव्य दिखाई देता है।

"जब उस स्त्री ने कवि को अपनी तरफ देखते पाया तो स्त्री ने पहले तो गगनचुम्बी इमारतों की ओर देखा, फिर एक अजब दृष्टि से, जिसमें निराशा, व्यंग्य, आक्रोश, कटाक्ष, नियतिवाद जैसे भाव समाहित थे, कवि की ओर देखा। कवि को लगा जैसे किसी को मार पड़ी हो लेकिन किसी विवशतावश वह रो न पाया हो, यही भाव उस स्त्री की आँखों से व्यक्त हो रहे थे। बाद में कवि को लगा कि एक सितार साधा जा चुका है और उसके तारों से एक अनसुनी सी झकार निकल रही है। एक पल के लिए वह कर्मरत स्त्री काँप उठी। तेज गर्मी के कारण उसके माथे से पसीने की बूंदे चू रही थीं। उसे अपनी नियति स्वीकार है, वह पुनः अपने कर्म में लीन हो गई।


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