ऑंखों देखा गदर Class 11th Hindi Chapter -03 Bihar board | आंखों देखा गदर का सारांश और प्रश्न उत्तर

ऑंखों देखा गदर - लेखक - 

विष्णुभट्ट गोडसे वरसईकर

इसमें हम लोग इस चैप्टर का लेखक विष्णुभट्ट गोडसे वरसईकर का जीवन परिचय,  ऑंखों देखा गदर का सारांश और ऑंखों देखा गदर क्वेश्चन आंसर देखने वाले हैं 

लेखक परिचय

जन्म - 1828 ई० महाराष्ट्र राज्य के रायगढ़ जिले के बरसई नामक गांव में हुआ था 
पिता- पंडित बालकृष्ण भट्ट 

पं. विष्णुभट गोडसे वरसईकर कोई पेशेवर लेखक नहीं थे, अपितु वे एक कर्मकांडी और पुरोहित थे। उनकी थोड़ी-बहुत खेती थी, जो उनके और उनके परिवार के भरण-पोषण के लिए अपर्याप्त थी । 

परिवार को ऋण मुक्त करने तथा उसके समुचित निर्वाह के लिए धनार्जन हेतु वे उत्तर भारत की ओर आये थे, लेकिन सन् 1857 के गदर में फँस गए। मार्च, 1857 में बैलगाड़ी में बैठकर वे पुणे पहुँचे और वहाँ से इंदौर, अहमदनगर, धुलिया और सतपुड़ा होते हुए मध्यप्रदेश में महू पहुँचे, जहाँ उन्हें सिपाहियों से ही क्रांति की खबरें मिलीं। सिपाहियों के मना करने के बावजूद वे आगे बढ़ते हुए उज्जैन, धारा होते हुए ग्वालियर जा पहुँचे। इस बीच उन्होंने गदर की घटनाओं को बड़ी ही नजदीक से देखा-सुना था। इसके बाद वे पुनः झाँसी आकर फँस गये। वहाँ वे झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के प्रत्यक्ष संपर्क में आये और उनका विश्वास और आश्रय प्राप्त कर कई दिनों तक उनके साथ किले में ही रहे। उन्होंने अनेक कष्ट सहकर भी उत्तर भारत के कई तीर्थों की यात्रा की और ढाई साल बाद अपने गाँव वरसई वापस लौटे। वहीं उन्होंने अपने प्रिय यजमान श्री चिन्तामणि विनायक वैद्य के विशेष अनुरोध पर अपनी यात्रा का आँखों देखा हाल स्मरण के आधार पर 'माझा प्रवास' नामक रचना में लिखा ।

साहित्यिक रचना :  विष्णुभट गोडसे वरसईकर की एक ही प्रमुख रचना है-माझा प्रवास (मेरा प्रवास), जो मूल रूप से मराठी भाषा में लिखित है। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई से संबंधित उनके संस्मरण प्रामाणिक रूप में वर्णित हैं। इसका हिन्दी अनुवाद बीसवीं सदी के चौथे दशक में सुप्रसिद्ध कथाकार और लेखक अमृतलाल नागर ने 'आँखों देखा गदर नाम से प्रस्तुत किया। इस प्रकार यह एक उत्कृष्ट यात्रा संस्मरण है, जिसमें लेखक विष्णुभट द्वारा यात्राओं के दौरान देखी-सुनी बातों का बड़ा ही यथार्थ, जीवंत और चित्ताकर्षक वर्णन हुआ |


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 ऑंखो देखा गदर


चैत का महीना आन पहुँचा, गर्मी के झोंके लगने लगे। वसंत के जाने के बाद ग्रीष्म ऋतु का राज्य स्थापित हुआ। यह तो निश्चित हो ही चुका था कि झाँसी में लड़ाई होगी, इसलिए कुछ सावधान नागरिक अपने औरत बच्चों और धन-दौलत को लेकर ग्वालियर चले गए।

चैत बीता बैशाख लगा। एक दिन शहर के दक्षिण की ओर मैदान में तंबू दिखाई पड़ने लगे और इधर-उधर आग की रोशनी भी दिखाई देती थी। साँझ के समय हम लोग किले के ऊँचे बुर्ज पर से देखने लगे तो शहर के चारों ओर जगह-जगह पर तंबू गाड़कर पल्टनें उतरी हुई दिखाई दीं। चारों तरफ हलचल मच रही थी। चढ़ाई हो गई है यह देखकर रात में बाई साहब खुद किले पर और शहर की दीवारों पर घूम-घूम कर बंदोबस्त करने लगीं। फाटकों के पास सिपाहियों की टुकड़ियाँ और उनके साथ एक-एक बहादुर और भरोसे के सरदार नियुक्त कर दिए गए।

दूसरे दिन सवेरे शहर की दीवार के पास मोर्चा बाँधने के लिए अंग्रेजों के बीस-पचीस सवार दौड़ते हुए आए। किले के पश्चिम की तरफ आकर दीवार की तरफ बढ़ने लगे वैसे ही हमारी तरफ के दक्ष और होशियार गोलंदाज ने तोप में पलीता रख दिया। दस-पाँच मरे; बाकी भाग गए। इस तरह पहले दिन अंग्रेजी फौज शहर के चारों तरफ मोर्चे बाँधने का प्रयत्न करती थी, लेकिन हमारे गोलंदाज उनके चिथड़े उड़ाकर रख देते थे। दूसरे दिन भी इसी तरह मोर्चा बाँधने के लिए अंग्रेज पिले पड़े थे लेकिन मोर्चा न बँध सका। शहर में जो बड़े-बूढ़े लोग थे, उन्हें यह मालूम था कि शहर या किले पर कहाँ से मोर्चा लागू होता है। लेकिन यह जानकारी भी बहुत थोड़े लोगों को थी। अंदर के षड्यंत्र के कारण कहो या बाहर ही अंग्रेजों को इस बात का जानकार मिला, यह कहो

- तीसरे दिन अंग्रेज मौके समझ गए। फिर रात होने पर उन्होंने सब ठिकाने साधकर साधारण मोर्चे बाँधे और चार घड़ी रात रहे किले के पश्चिमी बाजू पर अंग्रेजों की दक्षिण तरफ की गरनाली तोप चलने लगी। इधर वायव्य दिशा की ओर भी तोप गोले बरसाने लगीं। शहर पर वार चलने लगी। यह देखकर बाई साहब को बड़ा दुख हुआ और निराशा की पहली सीढ़ी से उनका पैर लगा। परंतु वह जरा भी न डगमगाई। जगह-जगह और अधिक बहादुर तैनात किए और स्वयं भी खाने-पीने की चिंता छोड़कर किले और शहर की दीवारों पर खपने लगीं।
Related Questions

1. 'आँखों देखा गदर' पाठ के अनुसार लड़ाई कहाँ होनी थी? Ans - झाँसी में

2. शहर की दीवार के पास मोर्चा बाँधने के लिए अंग्रेजों के कितने सवार दौड़ते हुए आए?
Ans - बीस-पचीस सवार

3. किन लोगों को मालूम था, कि शहर या किले पर कहाँ मोर्चा लागू होता है?
Ans- बड़े-बूढ़े लोगों को। 

4. पश्चिमी बाजू पर अंग्रेजों की किस तरफ की गरनाली तोप चलने लगी, बताइए?
Ans-  दक्षिण तरफ की।
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शहर पर तोप के गोले शुरू होने से रैयत को बड़ा त्रास हुआ। एकाध गोला रास्ते में पड़ा तो फूटकर दस-बीस-पचास को घायल करता और दस-पाँच मारे जाते। किसी घर पर पड़ा तो वह तो भस्म ही हो जाता था उसके धक्के से आस-पास के छोटे घर खंडहर होकर गिर पड़ते थे। आग लग जाती थी। परंतु बाई साहब ने शहर में बंबों का इंतजाम बड़ा अच्छा कर रखा था। आग लगी नहीं कि बंबे तुरंत बुझाते थे। शहर में धंधा-रोजगार बिलकुल बंद हो गया था। इधर-उधर आने-जाने से लोग घबराते थे।

इधर बाई साहब ने भी अपनी तरफ से अंग्रेजों की जबर्दस्त नाकाबंदी शुरू की। अंग्रेजों की तरफ के बहुत से लोग मारे गए। चौथे दिन दोपहर में अंग्रेजों ने किले के दक्षिण बुर्ज की तोप बंद कर दी। उस तोप पर कोई गोलंदाज टिक ही न पाता था। लोगों में बड़ी हौलदिली फैल गई। तभी पश्चिमी बुरुजवाले हमारे गोलंदाज  अपने मोर्चे की तोप दक्षिण की तरफ लगा दी. दूरबीन से बेचूक निशाना साधकर तोप में पलीता लगाया और तीसरे धमाके में ही अंग्रेजों के उत्तम गोलंदाज को ठंडा कर दिया। इस तरह दक्षिण की तोप फिर चालू करके उसने अंग्रेजों की तोप बंद कर दी।

रात में शहर और किले पर गोले पड़ते थे। पचास-साठ सेर का गोला जब तोप से उड़ता था तो एक छोटी-सी गेंद-सा दिखाई देता था। ये लाल भड़के गोले रात्रि के अंधकार में गेंद की तरह इधर-उधर आसमान में उड़ते हुए बड़े विचित्र लगते थे। दिन में सूर्य के प्रकाश में अप्रतिम हो जाते हैं आदमी को ऐसा लगता था कि यह गोला मेरे ऊपर ही आकर पड़ेगा। लेकिन वह सात-आठ सौ कदम जाकर फूटता था। दिन-रात लगातार युद्ध होने से शहर जर्जर हो गया। पाँचवे छठे दिन भी इसी तरह युद्ध चलता रहा। कभी पहर-डेढ़ पहर तक बाई साहब की जय होकर अंग्रेजों का नाश होता था और उनकी तोपें बंद हो जाती थीं। फिर कभी अंग्रेजों की जीत होने लगती थी हमारी पल्टन घबराने लगती थी और तोपें बंद हो जाती थीं। सातवें दिन सूर्यास्त के बाद पश्चिमी मोर्चे की तोप बंद हो गई। वहाँ कोई ठहर ही न पाता था और शत्रुओं की तोपों ने हमारा वह मोर्चा भी तोड़ डाला। रात में कुशल कारीगरों को चुपचाप बुर्ज पर चढ़ाया गया। ईटे और गारा वगैरह नीचे से ऊपर पहुँचाने के लिए मनुष्यों की नसेनी-सी खड़ी कर दी गई थी। कारीगर भी बड़े ही चतुर और अपने काम में निपुण थे। दुश्मनों को आहट भी न मिली और रातोंरात मोर्चा बाँधकर तोप चालू कर दी गई। उस समय अंग्रेज गाफिल पड़े थे। उनका बड़ा नुकसान हुआ और पहर भर तक उनकी दो तोपें बंद पड़ी रहीं।

Related Questions

L. शहर में बंबों का इंतजाम किसने कर रखा था
Ans-  बाई साहब ने।

2. अंग्रेजों ने किस दुर्ग की तो बंद कर दी?
Ans- दक्षिण बुर्ज की।

4. आँखों देखा गदर पाठ के अनुसार पोता कितने कदम जाकर फूटता था?
Ans- सात-आठ सौ कदम जाकर फूटता था।

3. पचास-साठ सेर का गोला किस प्रकार का दिखाई
Ans- छोटी-सी गेंद सा

 5. युद्ध में कारीगरों का स्वभाव कैसा था?
Ans- चतुर और अपने काम में निपुण।

आठवें दिन बड़ी प्रलय मची और यहा ही धनघोर युद्ध हुआ। बहादुर लोग जोर-जोर से एक दूसरे को बढ़ावा दे रहे थे। बटुकों और तोपों की आवाज के सिवा और कुछ सुनाई h = देता था। नरसिंहे, नगाड़े, बिगुल आदि बज रहे थे। धूल और धुआँ, बारूद, गोले, बटुके और बाजों की आवाज, मनुष्यों के चीत्कार सब मिलकर बड़ा ही भयंकर वातावरण उपस्थित कर रहे थे। अंग्रेजी फौजों ने बड़ी तबाही मचाई। परकोटे पर के सिपाही और गोलंदाज एक के बाद दूसरे थे और उनकी जगह नए लोग खड़े किए जाते थे। बाई साहब को बड़ी मेहनत करनी पड़ रही थी। चारों तरफ घूम-घूमकर सारा प्रबंध कर रही थीं। जहाँ जरा कमजोरी देखी यहीं आदमी बढ़ाए, आदमियों को हिम्मत दी परंतु उन्हें बड़ी ही पिता थी कि पेशवा की तरफ से मदद क्यों नहीं आ रही इस चिंता ने उनको किंकर्तव्यविमूढ़ बना दिया।

इधर कालपी से तात्या टोपे पंद्रह हजार फौजें लेकर निकला और उदल कूच करता हुआ झाँसी पहुंचा रातोरात मोर्चा बाँधकर उसने तोपों में पलीता लगाया। इधर कप्तान साहब भी अंग्रेजी फौज लेकर उससे लड़ने के लिए आ धमका। यह लड़ाई का दसवाँ दिवस था झाँसी के सब लोग इस लड़ाई पर ही झाँसी के भाग्य का निर्णय समझते ये सब लोग युद्ध देखने के लिए परकोटे की दीवार पर आकर जम गए। दोनों ही ओर के सिपाही अपनी जान होम कर लड़ रहे थे। किसी को भी अपना भान नहीं रहा। आमने सामने की लड़ाई थी प्यादे से प्यादा सवार से सवार रहा था। बिगुल, नरसिंयों, बंदूकों, तोपों इत्यादि की आवाज हवा में धुंध-सी बनकर छा गई थी। झाँसी वाली बाई और उसके सरदार लोग दूरबीन लगाकर देख रहे थे। परंतु झाँसी के दुर्भाग्य से कहो या तात्या टोपे की अकुशलता से कहो, या हिंदी सिपाहियों के नादान और अनूर होने से कहो, तात्या टोपे की फौज टूटने लगी। सिपाही लोग भागने लगे। अंग्रेजी फौजों ने मोचों पर से तोपें निकालकर भागने वालों पर निशाना साधा। रिसाले सवारों ने एकदम हल्का बोल दिया। यह देखकर स्वयं तात्या टोपे भी चौवीसपने और छत्तीसपने की तोप वहीं छोड़कर निकल लिया। विजय मिलने से अंग्रेजों की हिम्मत दुगुनी दोगुनी हो गई। उन्हें लड़ाई का सामान भी मिला। झांसी वालों में हाहाकार मच गया। सब लोग दुख, भय और निराशा से टूट गए।

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1 'आंखों देखा गदर' पाठ के आधार पर बताइए, कि आठवें दिन का युद्ध कैसा था ?
Ans- बड़ी प्रलय तथा घनघोर युद्ध जैसा

3. युद्ध देखने के लिए सब लोग कौन-सी दीवार पर आकर जम गए?
Ans- परकोटे की दीवार पर ।

2. बाई साहब ने युद्ध में मेहनत किस प्रकार की? 
Ans- चारो तरफ घूम-घूमकर सारा प्रबन्ध किया तथा जहाँ जरा कमजोरी देखी यही आदमी बढ़ाए।

4. विजय मिलने पर अंग्रेजों की हिम्मत कैसी हो गई? 
Ans- अंग्रेजों की हिम्मत दुगुनी चौगुनी हो गई थी।

परंतु निराशा की शक्ति भी कुछ विलक्षण ही होती है। सिपाहियों को जब यह विश्वास हो गया कि झाँसी अंग्रेजों के हाथ लगेगी और वे हमारे ऊपर जरा भी दया न करेंगे। इस विचार से उनका हौसला और दूना हो गया। बाई साहब ने सब सरदारों को इकट्ठा करके कहा कि आज झाँसी लड़ी तो कुछ पेशवा के बल पर नहीं और आगे भी उसे किसी की मदद की जरूरत नहीं। ऐसा निश्चय करके सरदार लोग और स्वयं बाई साहब परकोटे की दीवारों पर फिर से मेहनत करने लगे। उसी दिन रात में अंग्रेजी गोलंदाजों ने फिर भयंकर हमला किया। शहर और किले पर लाल-लाल गोलों की झड़ी लगा दी। किले के सब लोग रातभर जागते हुए बैठे रहे।

रात गई और युद्ध का ग्यारहवाँ दिवस आ पहुँचा। बाई साहब तलवार बाँधे हुए चारों तरफ सबको हिम्मत बँधा रही थीं। गोलंदाजों को बख्शीशें दी गई जो तोपें बंद हो गई थीं, वे फिर शुरू हो गई। अंग्रेजों ने अपनी सारी गरनाली तोपें किले पर ही लगा दी। तब तो महलों में हाहाकार मच गया।

उस दिन महलों पर ही अंग्रेजी तोपों की शनि दृष्टि थी; परंतु खास महल को कोई नुकसान नहीं पहुँचा। बादशाही जमाने का चूने से बना हुआ मजबूत महल कुछ यों ही टूट सकता था? जहाँ गोला पड़ता वहाँ उतना बड़ा छेद हो जाता। यों दो-तीन छतों में भंबक हो जाते थे और गोला नाकाम हो जाता था। परंतु ऐसा नुकसान भी कुछ कम न हुआ था। महल के हरेक दालान पर गोले पड़ने लगे। तब तो सब लोग घबराकर नीचे की एक कोठरी को निर्भय स्थान समझकर उसमें भरने लगे। उस कोठरी के ऊपर पाँच मंजिलें थीं। भरते भरते उसमें चौंसठ आदमी जमा हो गए, और वह ठसाठस हो गई। मैं भी उस कोठरी में था, दासियाँ भी थीं। गर्मी और भीड़ तथा प्राणों के भय के कारण शरीर से पसीना छूट रहा था। साँस छोड़ने की भी जगह न थी। मैं तो बिलकुल घबरा गया था। पूरी चार घड़ी उसमें काटी। मृत्यु के भय से बढ़कर दूसरा कोई भय नहीं। सबके ही जीव कसमसा रहे थे। परंतु बाई साहब के गोलंदाजों ने बड़ी दिलेरी और फुर्ती दिखाई। अंग्रेजों की तोपों को खाली कर दिया तब कहीं जाकर महल में गोले पड़ने बंद हुए सब लोग उस कोठरी से बाहर निकले।
Question

1. शहर व किले पर किस रंग के गोले की झड़ी लगा दी गई थी?
Ans-  लाल-लाल रंग के गोलों की

3. कोठरी में कितने आदमी जमा हो गये थे? 
Ans- चौंसठ आदमी

4. कोटरी में लोग कितनी पड़ी रहे थे?
Ans- चार धड़ी

2. महल के कौन से दातान पर गोले पड़ने लगे ? 
Ans- हरेक दालान पर

इस तरह लगातार ग्यारह दिन तक लड़ाई चली। फिर शाबाश है उस स्त्री को; उस रात को रोज की तरह बाई साहब शहर के और किले पर गश्त लगाकर जब बंदोबस्त कर रही थीं, इतने में ही एक भेदिए ने आकर खबर दी कि दो-ढाई लाख रुपयों का गोला-बारूद खर्च करके भी अंग्रेज सरकार को जय मिलती दिखाई नहीं देती। उनका गोला-बारूद भी अब चुक गया है। इसलिए कल पहर भर लड़ाई लड़ने के बाद उनका लश्कर उठ जाएगा। यह सुनकर बाई साहब को कितना आनंद हुआ होगा, यह तो उनका मन ही जानता होगा। उनके चेहरे पर और भी दमक आ गई और उनकी शक्ति और हिम्मत दुगुनी हो गई। उस रात को दो बजे के लगभग निश्चित होकर यह गहरी नींद में सो गई। लेकिन बाई साहब के ग्रह अच्छे नहीं थे। लगभग पौ फटने के समय शहर के दक्षिण बाजू की तोप एकाएक बंद पड़ गई। यह खबर लेकर एक आदमी आया और बाई साहब को जगाकर उसने सारा हाल कहा। सारी हकीकत सुनकर सबके पेट में पानी हो गया और हमारे प्राण भीतर-ही-भीतर घुटने लगे। हर हर! अट्ठासी पहर तक बड़ी बहादुरी से लड़ने के बाद अंत में अंग्रेजों ने शहर को सर कर ही लिया। छठी मंजिल पर जाकर मैं देखने लगा। उस समय सवेरे का धुंधला प्रकाश पड़ रहा था। देखा, हजारों मजदूरों के सिर पर घास के गट्ठर रखाए उनके पीछे-पीछे गोरे सिपाही शहर की दीवार चढ़े आ रहे हैं। देखते-ही-देखते ये ऊपर आ पहुँचे। घास वालों ने दीवार के पास पहुँचते ही अपने सिर के गट्ठर एक पर एक फेंककर सीढ़ी बना दी और उसके ऊपर से होकर गोरे सिपाही उतरने लगे। दीवार पर बाई साहब के सिपाहियों में से कुछ तो भाग निकले और जो शूर थे, उन्होंने यथाशक्ति गोरों को रोका। परंतु वे बेचारे बहुत थोड़े थे, इसलिए मार डाले गए दस-बारह मिनट के अंदर-ही-अंदर हजारों गोरे शहर की दक्षिण दीवार पर दिखाई देने लगे।
Related Questions

1. लड़ाई कितने दिन तक चली थी? 
Ans- ग्यारह दिन तक।

2. बाई साहब की शक्ति और हिम्मत कब दुगुनी हुई? 
Ans- जब उन्हें पता लगा कि अंग्रेज सरकार दो-ढाई लाख रुपये खर्च करके भी जीत नहीं पाई।

3. किस समय शहर के दक्षिण बाजू की तोप बंद पड़ गई ?
Ans- पौ फटने के समय

4. पास वाले मजदूरों ने दीवार के पास पहुँचते ही सीढ़ी कैसे बनाई थी?
Ans- अपने सिर के गट्ठर एक पर एक फेंककर ।

बाई साहब ने जैसे ही हकीकत को समझा वैसे ही सहस्र बिच्छुओं के डंक मारने के समान उन्हें दुख हुआ। चेहरे की आब उतर गई। अक्ल गुम हो गई। सोने के पहले जो खबर सुनी थी, वह क्या थी ! और अब यह खबर! इसका अर्थ क्या है? भय, दुख और आश्चर्य से चित्त ऐसा उद्विग्न हुआ कि क्या करना चाहिए, उन्हें सूझता ही न था। बाहर आकर शून्य दृष्टि से वे दक्षिण दिशा की ओर देखने लगीं। जहाँ हजारों गोरे सिपाही बढ़े चले आ रहे थे। परंतु बाई साहब हम भट्ट भिक्षुकों की तरह कुछ नादान थोड़े ही थीं, भय और विचारशून्यता का क्षण दूर गया, तुरंत ही बाई साहब को शूरत्व का आवेश आ गया। पंद्रह सौ विलायती अर्थात् मुसलमान अरब, जो बहुत दिनों से उनके यहाँ नौकर थे उन्हें लेकर तलवार खींचकर वे तुरंत ही किले से नीचे उतरीं और बड़े दरवाजे से दक्षिण की ओर चल दीं। गोरे लोग शहर में आ गए थे। उनकी तलवारें भी म्यानों से बाहर निकल आई थीं। सबके पीछे से चलते हुए बाई साहब सेना के मध्य से होकर तलवार लिए आगे बढ़ रही थीं। गोरे और विलायती लोगों की तलवारों में गाँठ पड़ते ही चारों ओर भीषण दृश्य उपस्थित हो गया कि उसकी उपमा केवल महाभारत के युद्ध से ही दी जा सकती है। सौ तक गिनती गिनने में देर लगेगी, परंतु जोश में भरे हुए विलायतियों को सैकड़ों गोरे मारने में उतनी भी देर न लगी। बाकी जो बचे थे, वे शहर में इधर-उधर भागकर घरों और पेड़ों की आड़ से बंदूक तानने लगे। पीछे से जो गोरे लोग आ रहे थे, उन्होंने भी तलवार न चलाकर दूर से ही गोलियाँ मारनी शुरू कीं। उस समय बाई साहब के साथ एक पचहत्तर वर्ष का वृद्ध और पुराना सरदार था। वह आगे आकर बाई साहब का हाथ रोककर कहने लगा, "महाराज, इस समय आगे जाकर गोली का शिकार होना व्यर्थ है। गोरे लोग इमारतों की आड़ लेकर गोलियाँ चला रहे हैं। सैकड़ों गोरे शहर के अंदर आ गए हैं। इसलिए शहर के सब फाटक उन्होंने खोल दिए हैं। इस समय लड़ने से कुछ हासिल नहीं। आप किले में जाकर दरवाजा बंद करके फिर कोई युक्ति सोचें। हमें समय को फिर से लौटा लाना है।" यह कहकर उसने बाई साहब को वापस भेज दिया और हॉक मारकर विलायतियों से भी लौटने को कहा, सब लोग किले में पहुँचकर फाटक बंद करके
बैठ गए।

Related Questions

1. बाई साहब बाहर आकर शून्य दृष्टि से किस दिशा की ओर देखने लगी?
Ans- दक्षिण दिशा की ओर ।

2. बाई साहब किन्हें लेकर किले से नीचे उतरी ? 
Ans- पंद्रह सौ विलायती अर्थात् मुसलमान अरबों की।


 3. वृद्ध और पुराने सरदार ने बाई साहब से क्या कहा या?
Ans- बाई साहब आप किले में जाकर दरवाजा बंद करके फिर कोई युक्ति सोचें।"

4. युद्ध के समय बाई साहब के साथ कौन व्यक्ति मौजूद था
Ans - पचहत्तर वर्ष का वृद्ध, पुराना सरदार

इधर चारों ओर के फाटकों से गोरे अंदर आने लगे और विजन करना शुरू किया। पाँच बरस से लगाकर अस्सी बरस तक जो पुरुष दिखा, उसे गोली या तलवार से पार उतार दिया। शहर के एक भाग में आग भी लगा दी। आग पहले हलवाईपुरे से लगाई गई। उस समय शहर में ऐसा आर्तनाद फैला कि जिसका पार न था। भेड़िए जब भेड़ों के झुंड पर झपटते हैं, तब भेड़ों के प्राणों की जो दशा होती है; वही इस समय लोगों की थी। भय से आतुर होकर लोग बुद्धिहीन से इधर-उधर भाग रहे थे। भागते-भागते में ही बहुत से गोलियाँ खाकर मुर्दे हो गए। कोई इस गली में लपका, कोई घर के तहखाने को भागा, कोई दाढ़ी-मूँछें साफकर स्त्री वेश धारण करके बैठ गया; कोई खेतों में जा छिपा। इस तरह अपने प्राण बचाने के लिए जिसे जो जुगत सूझी, वही करने लगा।

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दूसरी ओर गोरे लोग घरों में घुसकर मनुष्यों की हत्या और सोने चांदी की लूट करने लगे। उनके घरों में घुसते ही जो दिखाई दिया उस पर सीधी बंदूक तन जाती थी, यदि उसने चटपट अपना माल असबाब गोरों के हवाले कर दिया, तब तो भली-भला, नहीं तो प्राण यमलोक में।

Related Questions 

1. अंग्रेजों ने कितने बरस तक के लोगों को गोती या तलवार से पार उतार दिया?
Ans- पाँच बरस से लगाकर अस्सी बरस तक के लोगों

2. लोगों ने अपने को बचाने के लिए क्या-क्या किया? 
Ans- लोगों ने अपनी दाढ़ी-मूंछें साफकर, स्त्री वेश धारण किया और कुछ खेतों में जा छिपे इत्यादि ।

 3. गोरे लोगों ने घरों में घुसकर क्या क्या किया? 
Ans- मनुष्यों की हत्या और सोने चांदी की लूट।


4. आग पहले कहाँ से लगाई गई?
Ans-  हलवाईपुर से।

इधर बाई साहब किले में आकर बड़ी शोक विह्वल होकर दीवानखाने में बैठ गई। उस तेजस्वी स्त्री की उसी समय की स्थिति और इसके अतिमानवीय पराक्रम का यह अत्यंत दुखकारक परिणाम देखकर हम सबके हृदय भर आए। सब लोग इधर-उधर चिंताक्रांत होकर धीरे-धीरे यही बातें करने लगे कि अब बाई साहब को क्या करना चाहिए. परंतु बाई साहब के पास कोई भी नहीं जाता था। एक पहर के बाद शहर के हाल-चाल लेने के लिए बाई साहब छत पर आई। उस समय शहर का जो दीन दृश्य उनकी आँखों के सामने आया, उसे देखकर उनके आँसू न रुक सके। बाई साहब को यह लगा कि मेरे कारण इन बेचारे निरपराध प्राणियों की जानें जा रही हैं। स्त्रियों का हृदय बड़ा कोमल होता है। बाई साहब का हृदय दुख और करुणा से इतना ओत-प्रोत था कि उन्हें यह लगने लगा कि में महापातकी हूँ, यह निश्चय उनके मन में कायम हो गया। सब लोगों को बुलाकर उन्होंने कहा, "मैं महल में गोला-बारूद भर कर इसी में आग लगाकर मर जाऊँगी, लोग रात होते ही किले को छोड़कर चले जाएँ और अपने प्राण की रक्षा के लिए उपाय करें।" जिस वृद्ध सरदार ने सवेरे बाई साहब को किले लौटाया था, वही इस समय भी आगे बढ़ा और बाई साहब को दीवानखाने ले जाकर कहने लगा, “महाराज आप जरा शांत हो। ईश्वर ही शहर पर यह दुख लाए हैं; मनुष्य उसका कोई इलाज नहीं कर सकता। आत्महत्या करना बड़ा पाप है। दुख में धैर्य धारण करके गंभीरतापूर्वक सोचना चाहिए कि उससे बचने के लिए आगे कोई रास्ता निकल सकता है या नहीं आप शूर हैं, रात में तैयारी करके शहर के बाहर निकल चला जाय। मौका पड़ने पर शत्रु से दो हाथ लड़ते हुए घेरा तोड़कर पेशवा से मिला जाय। इस बीच में यदि मृत्यु आ गई तो बहुत अच्छा। यहाँ आत्महत्या करके पाप संचय करने की अपेक्षा युद्ध में स्वर्ग जीतना उत्तम है।" इन शब्दों से बाई साहब को बहुत कुछ धीरज बँधा और वे स्वस्थ हुई।

RELATED QUESTIONS

1. एक पहर के बाद शहर के हाल-चाल लेने के लिए बाई साहब कहो पर आई ?
Ans- छत पर

2. बाई साहब की आँखों में आँसू कब आए?
Ans- शहर का दीन दृश्य देखकर आँखों में आँसू रुक न सके।

3. भाई साहब दोषी किसे मान रही थीं?
Ans- खुद को।

4. किस व्यक्ति ने बाई साहब को आगे बढ़ने का साहस दिया?
Ans- वृद्ध सरदार ने

इधर बाई साहब रात के बारह बजे सब तैयारी करके किले के बाहर निकलीं। मोरोपंत तांबे आदि जितने सगे-संबंधी थे, ये सब भी हथियारबंद होकर घोड़े पर सवार होकर साथ हो गए। हरेक की कमर से मोहरें बंधी थीं। खजाने में जो कुछ अर्थ था, वह सब एक हाथी पर लादा गया और उसे बीच में किया गया। साथ में दो सौ पुराने और जान पर खेल जाने वाले सरदार थे। इसके अलावा सवेरे अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने वाले एक हजार दो सी विलायती बहादुर भी चल रहे थे। बाई साहब पाजामा, स्टाकिन बूट वगैरह पुरुष वेश धारण किए हुए थीं और हरवे-हथियार से पूरी तरह लैस थीं। बाई साहब जिस घोड़े पर सवार थीं, वह एकदम सफेद था, ढाई हजार रुपए में खरीदा गया था और राजरत्न के समान ही उसका आदर था। उस घोड़े पर बैठकर पीछे रेशमी दुपट्टे से अपने बारह वर्ष के दत्तक पुत्र को बाँधकर, और साथ में केवल एक रुपए की रेजगारी लेकर महारानी बाहर निकलीं। शाबाश है उस स्त्री को ।

जैसे ही बाई साहब शहर से निकलीं कि अंग्रेजों को खबर मिली। तुरंत हो-हल्ला करके सबको सावधान किया और तोप चालू की। बाई साहब के पास बंदूक थी। वे उसे दागती हुई घोड़ा फेंककर भागीं। उस हुल्लड़ में दोनों तरफ के बहुत से कट गए। जो बचे थे, ये अँधेरे में रास्ता भटककर जहाँ सींग समाया, वहाँ भागे। चारों ओर सवार ही सवार थे उसमें अंग्रेजों को यह पता ही नहीं लग पाया कि बाई साहब का घोड़ा कौन-सा है। बाई साहब ने जो घोड़ा फेंका तो वह पल भर में अंग्रेजी फौजों का पेरा तोड़कर उन्हें बहुत पीछे छोड़ता हुआ आगे निकल गया। इस तरह बाई साहब दुश्मन के घेरे पार करके कालपी के रास्ते पर चल दीं।
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1. बाई साहब कितने बजे किले से बाहर निकली?
Ans- रात के बारह बजे

2.बाई साहब कैसा वेश धारण किए हुए थीं?
Ans- पाजामा, स्टाकिन बूट वगैरह पुरुष वेश धारण किए हुए थीं।

3.अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने वाले कितने विलायती बहादुर थे? 
Ans- एक हजार दो सौ विलायती बहादुर
4. घोड़ा किस रंग और कितने रुपये का था? 
Ans- सफेद रंग व ढाई हजार रुपये का।

 5. बाई साहब के पास कौन-सा हथियार था ? 
Ans- बाई साहब के पास बंदूक थी।

कालपी का रास्ता पकड़कर मंजिल दर-मंजिल मारते हुए एक दिन साँझ को एक खेड़े में जाकर बस्ती की। कालपी वहाँ से लगभग छह कोस रहा होगा। गाँव के बाहर वृक्ष के नीचे उतरकर भोजन बना खाकर हम लोग सो गए। प्रत्यूष बेला में एकाएक हल्ला सुनकर आँख खुल गई। उठकर देखता हूँ तो सैकड़ों सवार रास्ता उधेड़ते हुए चले आ रहे हैं। हम जल्दी-जल्दी अपना सामान लपेट-लपाट कर, यह सोचते हुए कि भगवान! अब जाने कौन-सा संकट आएगा? सिपाही लोगों के साथ ही भागे। थोड़ी देर बाद समझ में आया कि चरखारी में पेशवा की अंग्रेजों से मुठभेड़ हुई थी, तो उसमें पेशवा की हार हुई। उनके साथ झाँसी वाली रानी भी थीं, वह फौज लौटकर अब फिर कालपी जा रही थी। तब हम जरा निश्चित हुए। पौ फटते-फटते एक कुएँ के पास जाकर बैठ गए। हम लोग बैठे ही थे कि चार-पाँच सवार कुएँ की तरफ से होते हुए निकले। उसमें झाँसी वाली रानी भी दिखाई दीं। सारी पोशाक पठानी थी और शरीर धूल से भर रहा था। मुख किंचित आरक्त, म्लान और उदास था। उन्हें बहुत प्यास लगी थी और घोड़े से उतरकर हमारे पास आकर पूछने लगीं "आप लोग कौन हैं? मैंने तुरंत ही आगे बढ़कर हाथ जोड़कर कहा, "महाराज! आप ही की प्रजा हैं।" बाई साहब हमें पहचान गई। में मटके को जैसे ही कुएँ में छोड़ रहा था कि बाई साहब बोलीं, “आप विद्वान हैं, अतः मेरे लिए पानी न खींचें। मैं ही खींचे लेती हूँ।" उनके ये उदारता से भरे हुए शब्द सुनकर मुझे बड़ा बुरा लगा। परंतु निरुपाय होकर रस्सी और मटका रख दिया। बाई साहब ने पानी खींचकर उसी मिट्टी के पात्र से अंजलि बाँध कर पानी पिया। दैवगति बड़ी विचित्र है। फिर बड़ी निराश मुद्रा में कहने लगीं, "मैं आघ सेर चावल की हकदार, मेरी ऐसी रांडमुड़ को विधवा धर्म छोड़कर यह सब उद्योग करने की कुछ जरूरत नहीं थी, परंतु धर्म की रक्षा के लिए जब इस कर्म में प्रवृत्त हुई हूँ तो इसके लिए ऐश्वर्य, सुख, मान प्राण सबकी आशा छोड़ बैठी हूँ। न जाने कौन-से पाप के फल से ईश्वर हमें यश नहीं देते। चरखारी में बड़ी लड़ाई हुई, परंतु जय शत्रुओं को ही मिली अब वे कालपी की तरफ बढ़े आ रहे हैं। जल्दी ही वहाँ भी जंग होगी। जो कुछ लिलार में लिखा होगा, सो तो होगा ही।" यह कहकर बाई साहब उठीं। हम भी खड़े हो गए। बाई साहब घोड़े पर सवार हुई तब एकाएक उन्होंने पूछा, "कालपी क्यों जा रहे हैं" उनके पूछने पर मैंने कहा, "कालपी में बहुत से दक्षिणी हैं। उनसे कुछ दक्षिणा लेकर यमुना पार करके गंगा स्नान के लिए ब्रह्मावर्त्त क्षेत्र जाना चाहते हैं।"
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1. लेखक की ओं एकाएक कब और क्यों खुल गई?
Ans- प्रत्यूष बेला में, हल्ता सुनकर।
3. बाई साहब ने अपनी प्यास कहाँ से बुझाई?
Ans-  कुएँ से

2. पोशाकों का पहनावा किस प्रकार का था?
Ans-  पठानी।

4. चरखारी की बड़ी लड़ाई में विजय किसे प्राप्त हुई? 
Ans- शत्रुओं को।

"अच्छा तो तुम कालपी में गोदाम पर आना।" यह कहकर बाई साहब ने घोड़ा बढ़ाया। कालपी में तीन दिन लड़ाई चली। पेशवा की फौजें लड़ाई के लिए बेकार हो चुकी थीं। दिल्ली, लखनऊ, झाँसी वगैरह में अंग्रेजों की जय होने से गदरवाले बहुत कुछ निराश हो चुके। इसलिए बहुत से पुराने तजुर्बेकार पल्टनी लोग अपने प्राणों के भय से पल्टने छोड़कर चले गए थे। अंग्रेज सरकार ने उनके नाम पहले से ही जगह-जगह जाहिरनामे में लगा रखे थे। इसलिए भेष बदलकर वे लोग दूसरे दूसरे काम-धंधे करने लगे। जो नए लोग रखे गए थे, वे बिलकुल नौसिखिए थे। उन्हें ढंग की कवायद भी न आती थी इसलिए टिकाऊ नहीं थे। इतना ही नहीं, गदर में अच्छे और दमदार लोग जब मिलने को राजी नहीं हुए तो नए सिपाहियों, चोरों, लुच्चों और लुटेरों की भर्ती होने लगी | उनका लक्ष्य 
लड़ाई न होकर लूट अधिक थी। तीसरे दिन जब उन सिपाहियों को लगा कि जीत अंग्रेजों की ही होगी और पेशवा टूटेग तो वे लोग सैकड़ों की तादाद में लड़ाई का मैदान छोड़कर शहर में आ घुसे और दंगा, लूट, अनीति मचाई, चीनी की के सड़क पर बिछायत बिछ गई। अनाथ स्त्रियों की बड़ी ही दुर्दशा की गई। ये लोग लूटपाट कर ही रहे थे कि इतने में अंग्रेज लोग सारे मोर्चे जीतकर शहर में आ गए। उन्हें देखते ही थे डाकू काले सिपाही जहाँ सींग समाया, उधर ही भाग निकले। सैकड़ों की हत्या हुई। तात्या टोपे, झांसी वाली बाई और राव साहब तो अपना रंग फीका देखकर पहले जंगलों में निकल गए थे।
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1. कालपी में लड़ाई कितने दिन तक चली? 
Ans- तीन दिन तक। 
2. अंग्रेज सरकार ने पुराने तजुर्वेकार पल्टनी सोगों के पर लगा रखे थे?
Ans- जाहिरनामे में।

3. नए लोग किस प्रकार के थे? 
Ans- नौसिखिए प्रकार के।

4. तात्या रोपे, झाँसी वाली बाई और राव साहब पुद सम्बन्धा कमजोरी देखकर कहीं निकल गए थे?
Ans-  जंगलों में।

ग्वालियर में शिंदे सरकार के आव्य में जो लड़वैये लोग थे वे तात्या टोपे के साथ चले गए थे। कालपी में पेशवा की हार होने पर वे सब पल्टने ग्वालियर की ओर पलट पड़ीं। मुरार में शिंदे सरकार की फौजी छावनी थी। उन्होंने यहाँ जाकर मोर्चा बाँधा और शिंदे को कहलाया कि या तो खर्चे के लिए हमें चार लाख रुपए दो, नहीं तो मैदान में आओ। उस पर दिनकर राव राजवाड़े, दीवान ने जवाब दिया कि हम लड़ाई के लिए तैयार हैं। जयाजी महाराज शिंदे, उनके दीवान आदि सब फौजें लेकर मुरार नदी के पार पहुँचे। शिंदे की तरफ के बहुत पल्टनियों ने यह कहा कि हम लड़ाई का ठाट तो बाँध देंगे, लेकिन पेशवा पर गोली नहीं छोड़ेंगे क्योंकि वे आपके और हमारे, दोनों के मालिक हैं। इतने में हो मदरवाली फोज की तरफ से तोप में पलीता दे दिया गया और मारू बाजे बजने लगे। शिंदे और दीवान ने अपनी ओर के गोलंदाजों को बहुत-बहुत कहा, मगर उन्होंने जवाब दे दिया कि हम नमकहरामी नहीं करेंगे। शिंदे राजा और दीवान दोनों ही घोड़े से उतर पड़े और अपने हाथों तोप में बत्ती लगाई। परंतु तोपों के अंदर तो बाजरे की थैलियाँ भरी हुई थीं। तब तो शिंदे राजा और दीवान राजवाड़े हक्का-बक्का हो गए और तुरंत ही घोड़े पर सवार होकर आगरा का रास्ता पकड़ा।
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1. शिंदे सरकार के आश्रय में लड़येये लोग कहते थे?
Ans- ग्वालियर में।
 2. कालपी में पेशवा की हार होने पर पल्टनें वापिस कहाँ आने लगी?
Ans- ग्वालियर की ओर।
3. घोड़े से कौन-कौन व्यक्ति उत्तर पड़े? 
Ans- शिंदे राजा और दीवान।
 4. तोपों के अन्दर क्या घरा हुआ था? 
Ans- बाजरे की थैलियाँ।
 

इधर लड़ाई की चुटपुट तो हो ही चुकी थी, सौ-दो सौ आदमी मारे-काटे गए कि इतने में शिंदे और उनके दीवान के भाग जाने की खबर चारों ओर फैल गई। शिंदे के सिपाही यह सुनते ही इधर-उधर भाग खड़े हुए। लड़ाई बंद हो गई। श्रीमंत पेशवा की ओर शहनाई बजने लगी और उन्होंने लश्कर की ओर कूच किया। शिंदे सरकार ने फूलबाग नामक एक बड़ा ही रमणीय बाग लगवाया था। श्रीमंत वहाँ एक रात बंगले में ठहरे। गदरवालों ने सारा बगीचा उजाड़ डाला। हाथी, ऊँट वगैरह इधर-उधर छोड़ दिए गए, सो पेड़-फूलों की दुर्दशा हो गई। बंगले के अंदर लगे हुए शीशे तक फोड़ डाले। शहर में सर्राफा और दुकानें फटाफट बंद हो गई। सड़कों पर भूत लोटने लगा। फिर श्रीमंत ने डौड़ी पिटवा कर सब दुकानें खुलवाई और रीति मत फिर से व्यवहार शुरू हुआ। शहर के राजमहलों में पहले किसे भेजा जाए, श्रीमंत राव साहब इसका विचार कर रहे थे तभी झाँसी वाली रानी ने स्वयं वहाँ जाने की आज्ञा माँगी। राव साहब ने कहा कि शत्रु का शहर है, महलों में बड़े धोखे होंगे बंदोबस्त करके जाना। तब बाई साहब दो सौ सवारों को लेकर बड़े गंभीर भाव से शहर में आई। सवारी सर्राफ और प्रमुख बाजारों से चली जा रही थी। बाई साहब के सम्मान में सिपाही आगे बंदूकों से हवा में फायर करते चलते थे। इस तरह सवारी महलों में पहुँची। महल के पीछे वाले हिस्से के लोग अभी नहीं गए थे। कारण कि वे सब बायजा बाई साहब शिंदे के कारकुन थे। उन्होंने जाकर कहा कि इधर बायजा बाई साहब रहती हैं, अपने लोगों को इधर आने से रोक दीजिए। झाँसी वाली रानी ने तुरंत ही अपने लोगों को ताकीद कर दी, कि जहाँ-जहाँ बाई साहब के ताले पड़े हों, उधर तुम लोगों के जाने का कोई काम नहीं। बायजा बाई साहब चार-पाँच दिन पहले महल छोड़कर परेड की तरफ चली गई थीं।  
 
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1. शिंदे और दीवान के भाग जाने की खबर सुनकर
सिपाहियों ने क्या किया? 
Ans- सिपाही युद्ध छोड़कर इधर-उधर भाग गए और लड़ाई बन्द हो गई।

2. बाई साहब के सम्मान में सिपाही क्या करते चलते थे
Ans- बंदूकों से हवा में फायर ।

3. बाई साहब कितने सवारों को लेकर बड़े गंभीर भाव से शहर में आई? 
दो सौ सवारों को लेकर।

4. बायजा बाई साहब कितने दिन पहले म परेड की तरफ चली गई थी? 
Ans- चार-पाँच दिन पहले।

झाँसी वाली रानी ने महल में जाकर पहले तो यहाँ की सब चीजें अपने तावे में ले लीं और फिर राव साहब और तात्या टोपे को खबर भेजी कि यहाँ सब ठीक है, आप चले आइए। तब राव साहब की सवारी बड़े टाट-बाट के साथ शहर के बड़े-बड़े बाजारों से होकर धीरे-धीरे आगे चलती हुई महलों में आई शिंदे सरकार के मुनीमों और कारकुनों ने उनको भेंट की। राव साहब ने कहा कि हम यहाँ ब्रह्मभोज कराना चाहते हैं, इसलिए कल से मुक्त द्वार भोजन का प्रबंध करो। बेसन के लड्डू और पकवानों के साथ एक-एक रुपया दक्षिणा बाँटी जाय। जब तक हम यहाँ रहेंगे, तब तक रोज यह कायदा चलेगा। मुनीमों ने हाथ जोड़कर कहा कि महाराज के हुकुम के अनुसार ही सब सरंजाम हो जाएगा।

इस तरह बड़ी राजी खुशी से श्रीमंत राव साहब ने वहाँ अठारह दिन बिताए। रोज मुक्त द्वार होता था। शहर का प्रबंध बहुत अच्छा कर रखा था, मुरार में एक पल्टन तैनात थी। लेकिन अठारहवें दिन ग्यारह-बारह बजे के लगभग अचानक बड़ी खलबली मच गई। खबर पड़ी कि आगरे से अंग्रेजी फौज ने आकर मुरार पर हल्ला बोल दिया है। उसी दम झाँसी वाली बाई, तात्या टोपे और राव साहब घोड़े पर सवार होकर एक फौज के साथ मुरार की ओर दौड़ गए।

मुरार में घमासान युद्ध छिड़ गया। झाँसी वाली के गोली लगी, पर वह मानी नहीं। दूसरा तलवार का करारा हाय उनकी जांघ पर पड़ा। उस समय वे घोड़े से गिरने लगीं। तात्या टोपे ने घट से उन्हें संभालकर घोड़ा आगे बढ़ा दिया। बाई साहब की मृत देह को एक जगह रखकर लोगों ने उसका दहन किया। अंग्रेजों की जीत रही। गदर वाले इधर-उधर भागने लगे। इस प्रकार रणांगण में उस मशहूर देवीस्वरूपिणी स्त्री ने मृत्यु पाकर स्वर्ग को जीता, परंतु गदर वालों की सदा उत्साह और शूरता से चमकने वाली प्रत्यक्ष वीरश्री निस्तेज हो गई।
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1. झाँसी वाली रानी ने महल जाकर खबर किस-किस
व्यक्ति को पहुँचाई ?
Ans- राव साहब और तात्या टोपे को

2. श्रीमंत राव साहब ने राजी-खुशी से कितने दिन बिताए? Ans- अठारह दिन।

3. घमासान युद्ध कहाँ छिड़ गया था। 
Ans- मुरार में।

5. झाँसी वाली रानी की मृत्यु कैसे हुई?
Ans- घमासान युद्ध में झाँसी वाली रानी के गोली लगी
 तथा दूसरा तलवार का करारा हाथ उनकी जांच पर पड़ा।




___________________________________
                अभ्यास प्रश्न।              

प्रश्न 1. अंग्रेजों को किले को समझने में कितने दिन लगे? फिर उन्होंने क्या किया?
उत्तर- अंग्रेजों को किले को समझने में तीन दिन लग गए। तीसरे दिन वे अपने मकसद में सफल हो सके और उन्हें उन स्थानों का पता लग पाया, जहाँ से किले पर मोर्चा लगाया जा सकता है। उन्होंने सब ठिकानों पर निशाने साधकर साधारण मोर्चे बाँधे और चार पड़ी रात रहते तोप से गोले बरसाने शुरू कर दिए।

प्रश्न 2. लक्ष्मीबाई को पहली बार निराशा कब हुई?
उत्तर- झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई एक वीरांगना स्त्री थीं। वे बड़े साहस और वीरता से किले पर अधिकार करने आये अंग्रेजों के मोचों को विफल कर रही थीं। लेकिन जब उन्होंने देखा कि अंग्रेजों ने रात में ही मोर्चे बाँधकर शहर पर गरनाली तोपों से गोले बरसाने शुरू कर दिए हैं, तब उन्हें पहली बार निराशा हुई।

प्रश्न 3. शहर में गोले पड़ने से आम जनता को क्या-क्या कष्ट होने लगे?
उत्तर-शहर में गोले पड़ने से आप जनता को निम्नलिखित कष्ट होने लगे- 
(i) रास्ते में पड़ने वाले गोले से दस-बीस-पचास आदमी घायल होते और दस-पाँच मारे जाते।
(ii) जिस घर पर भी गोला पड़ता वह घर तो नष्ट-भ्रष्ट हो ही जाता और साथ ही छोटे घर उसके धक्के से गिर जाते। 
(iii) घरों में आग लग जाती।
(iv) शहर में काम-धंधा बिल्कुल बंद हो चुका था। लोग इधर-उधर आने-जाने से घबरा रहे थे। 

प्रश्न 4. सातवें दिन सूर्यास्त के बाद क्या हुआ? रात के समय तोपें क्यों चालू की गई?
उत्तर- सातवें दिन सूर्यास्त के बाद झाँसी के पश्चिमी मोर्चे की तोपें बंद हो गई थी क्योंकि अंग्रेजों की तोपों ने उस मोर्चे को तोड़ दिया था। उसकी मरम्मत के लिए कुशल कारीगरों को चुपचाप बुर्ज पर चढ़ाया गया और ईंटें तथा गारे की मदद से काम पूरा कर दिया गया और दुश्मन को इसका पता भी न चल पाया। रात के समय तोपें दोबारा इसलिए चालू कर दी गई क्योंकि अंग्रेज सिपाही उस समय बेफिक्र होकर सो रहे थे। इससे उनकी सेना को भारी नुकसान हुआ।

प्रश्न 5. सिपाहियों को जब लगा कि झाँसी अंग्रेजों के हाथ लग जाएगी तो उन्होंने क्या किया?
उत्तर- सिपाहियों को जब लगा कि अब झाँसी अंग्रेजों के हाथ लग जाएगी तो उन्होंने सोचा कि अंग्रेज अब उनके ऊपर बिल्कुल भी दया नहीं करेंगे। इस विचार से उनका हौसला दुगना हो गया और वे परकोटे की दीवारों पर और ज्यादा मेहनत करने लगे।

प्रश्न 6. बाई साहब ने सरदारों से क्या कहा? बाई साहब के कहने का सरदारों पर क्या असर पड़ा? 
उत्तर- बाई साहब ने सरदारों को इकट्ठा करके कहा, “आज झाँसी लड़ी तो कुछ पेशवा के बल पर नहीं और आगे भी उसे किसी की मदद की जरूरत नहीं।" ऐसा कहने का सरदारों पर यह असर हुआ कि सरदार लोग और स्वयं बाई साहब फिर से परकोटे की टूटी दीवारों की मरम्मत करने में जुट गए।

प्रश्न 7. दसवें दिन की लड़ाई का क्या महत्त्व था? दसवें दिन की लड़ाई का वर्णन संक्षेप में करें।
उत्तर- दसवें दिन की लड़ाई का महत्त्व यह था कि उसी दिन की लड़ाई के बाद झाँसी के स्वतंत्र रहने अथवा परतंत्र होने का निर्णय होना था। उस दिन तात्या टोपे भी अपने सैनिकों के साथ झाँसी की तरफ से युद्ध कर रहा था। अगर आज झाँसी अंग्रेजों को पराजित कर दे तो स्वतंत्र रहेगी नहीं तो उसे भी अंग्रेजों की पराधीनता में रहना होगा। लड़ाई का दसवाँ दिन था। कालपी से तात्या टोपे 15 हजार सैनिक लेकर झाँसी पहुँच चुके थे। अंग्रेजी फौजों से उनका कड़ा मुकाबला हुआ। दोनों ओर के सिपाही अपनी जान पर खेलकर लड़ रहे थे। बिगुल, नरसिधों, तोपों, बंदूकों, इत्यादि की आवाज हवा में धुंध-सी बनकर छा गई थी। लेकिन हिन्दी सिपाहियों के नादान और अशूर होने के कारण तात्या टोपे की फौजें टूटने लगीं। सिपाही भागने लगे। अंग्रेजी फौजों ने तोपें निकालकर भागने वालों पर निशाना साधा। रिसाले सवारों ने भी एकदम हमला बोल दिया। यह देखकर स्वयं तात्या टोपे भी अपनी तोप छोड़कर भाग गए। विजय अंग्रेजों के हाथ लग चुकी थी।

प्रश्न 8. भेदिए ने लक्ष्मीबाई को आकर क्या खबर दी? लक्ष्मीबाई पर इस खबर का क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर- लक्ष्मीबाई किले पर गस्त लगा रही थीं और साथ-ही-साथ बंदोबस्त भी करती जा रही थीं। वह ग्यारहवें दिन की रात थी। इतने में ही एक भेटिए ने आकर लक्ष्मीबाई को खबर दी कि दो-ढाई लाख रुपयों का गोला-बारूद खर्च करने के बाद भी अंग्रेज सरकार को विजय मिलती दिखाई नहीं देती। उनका गोला-बारूद भी अब लगभग समाप्त हो चुका है। इसलिए कल पहर भर की लड़ाई के बाद उनका लश्कर यहाँ से उठ जाएगा।यह खबर सुनकर लक्ष्मीबाई आनंद से भर गई। उनके चेहरे पर और भी दमक आ गई और उनकी हिम्मत दुगुनी हो गई। उस रात दो बजे के आस-पास निश्चित होकर वह गहरी नींद में सो गई। 

प्रश्न 9. विलायती बहादुर कौन थे? पाठ में वर्णित उनकी भूमिका का वर्णन कीजिए।
उत्तर- झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के यहाँ जो पंद्रह सौ अरबी मुसलमान बहुत दिनों से नौकर थे, उन्हें ही विलायती बहादुर कहा गया है। अंग्रेजों के साथ युद्ध में उनकी भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण रही थी। वे विलायती बहादुर सचमुच बहुत बहादुर थे। जब-जब झाँसी पर विपत्ति आयी, इन विलायती बहादुरों ने अपनी जान की बाजी लगाकर लक्ष्मीबाई की तरफ से ब्रिटिश फौजों को छठी का दूध याद दिलाया। शत्रुओं से घिरी झाँसी से लक्ष्मीबाई को बाहर निकालने में उनकी भूमिका हमेशा सराहनीय रही।

प्रश्न 10. लक्ष्मीबाई को वृद्ध सरदार ने किन-किन अवसरों पर सलाह दी, इसके क्या परिणाम हुए? 
उत्तर- लक्ष्मीबाई को वृद्ध सरदार ने दो अवसरों पर सलाह दी। पहली बार तब जब शहर में घुस रहे अंग्रेजों को वापस खदेड़ने के लिए वे विलायती बहादुरों के साथ शहर में निकल पड़ीं। रानी और विलायती बहादुर अंग्रेजों को मारते-काटते आगे बढ़ रहे थे और अंग्रेज अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर छिप रहे थे, तब उसने रानी को महल में चलकर सोच-समझकर युक्तिपूर्वक लड़ने की सलाह दी।

परिणाम- इस परामर्श का परिणाम यह रहा कि अंग्रेज शहर के भीतर आकर भारी लूटमार करने लगे और जो भी सामने आता गया उसकी नृशंस हत्या करने लगे।
दूसरी बार वृद्ध सरदार ने तब सलाह दी जब अंग्रेज चारों ओर से घुसकर लोगों की निर्मम हत्या कर रहे थे और लूटपाट मचा रहे थे। लोगों को जान के लाले पड़े थे। शहर का हालचाल मालूम करने के लिए जब वे छत पर आई तो यह कल्लेआम और लूटपाट देखकर चिंताक्रांत हो गई। कोमल हृदया होने के कारण उन्होंने इन सबका जिम्मेवार स्वयं को माना और ये आत्महत्या करने के लिए उद्यत हो गई ।

परिणाम-वृद्ध सरदार के परामर्श से रानी को थोड़ा धीरज बंधा। उन्होंने आत्महत्या करने का विचार छोड़ दिया और उसकी सलाह मानकर रात के समय सगे-संबंधियों और सैनिकों के साथ हथियार सहित किले के बाहर निकल पड़ीं।

प्रश्न 11. शहर की दीवार पर चढ़ने के लिए अंग्रेजों ने कौन-सी युक्ति सोची?
उत्तर- शहर की दीवार पर चढ़ने के लिए अंग्रेज सिपाहियों ने मजदूरों से हजारों घास के गट्ठर मँगवाए। इन गट्ठरों को उन्होंने एक के ऊपर एक रखकर सीढ़ी बना दी और उसके ऊपर से होकर अंग्रेज शहर में उतरने लगे।

प्रश्न 12. गोरे लोग प्रोसी शहर में घुसकर क्या करने लगे? अपने प्राण बचाने के लिए लोगों ने क्या किया?
उत्तर-गोरे लोग झाँसी में घुसते ही कल्लेआम करने लगे। वे बच्चे, बूढ़े और जवान में से किसी को न बख्शते थे। जो भी सामने आता उसे गोली से उड़ा देते या तलवार के वार से काट डालते। इसके अलावा ये लूट-पाट भी करने लगे। गोरे सिपाहियों के इस आतंक से झाँसी के लोग काँपने लगे। अतः जान बचाने के लिए जिसे जो भी उपाय सूझता, वही करता। सभी लोग इधर-उधर भागने लगे। कोई इस गली में भागा तो कोई घर के तहखाने में दुबका तो कोई खेतों में जाकर छिप गया। 

प्रश्न 13. “में महल में गोला-बारूद भर कर इसी में आग लगाकर मर जाऊँगी, लोग रात होते ही किले को छोड़कर चले जाएँ और अपने प्राणों की रक्षा के लिए उपाय करें।" लक्ष्मीबाई ने ऐसा क्यों कहा? इस कथन से उनके व्यक्तित्व का कौन-सा पहलू उभरता है? अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर- लक्ष्मीबाई ने ऐसा इसलिए कहा ताकि लोग किले को छोड़कर चले जाएँ और अपने-अपने प्राणों की रक्षा कर सकें। अंग्रेज किसी व्यक्ति-विशेष को अपना शत्रु नहीं समझ रहे थे। उन्हें तो पाँच बरस से लेकर अस्सी वर्ष तक जो भी मिल रहा था, वे उसके प्राण लेने पर उतारू थे। उन्होंने घरों को आग लगाना शुरू कर दिया था, इसलिए वहाँ छिपकर भी प्राण नहीं बचाए जा सकते थे।
किसी भी स्थान अथवा राज्य की प्रजाजनों की रक्षा का उत्तरदायित्व मुख्यतः वहाँ के शासक का ही होता है। सच्चा प्रजा-रक्षक अपनी जान की बाजी लगाकर भी अपने राज्य तथा प्रजाजनों की रक्षा करता है। लक्ष्मीबाई तो एक कोमल हृदया रानी थीं जिन पर झांसी की प्रजा की रक्षा का उत्तरदायित्व था। उनके इस कथन से उनका प्रजा-रक्षक रूप उभरता है, जो उनके व्यक्तित्व का एक सकारात्मक पहलू है।

प्रश्न 14. “यहाँ आत्महत्या करके पाप संचय करने की अपेक्षा युद्ध में स्वर्ग जीतना उत्तम है।" वृद्ध सरदार के इस कथन का लक्ष्मीबाई पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर- वृद्ध सरदार के इस कथन का लक्ष्मीबाई पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा- 
(i) लक्ष्मीबाई के अशांत मन को शांति मिली।
(ii) वे स्वयं को पुनः स्वस्थ महसूस करने लगीं और एक नए उत्साह का संचार हो गया। 
(iii) उनमें अपने प्राणों के प्रति मोह पैदा हुआ और वे झाँसी की रक्षा के लिए उपाय सोचने लगीं।



                                   

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