पृथ्वी - कवि नरेश सक्सेना Class 11th Hindi Chapter - 11 Bihar Board || पृथ्वी चैप्टर का भावार्थ और प्रश्न उत्तर


आज हम लोग एक नए अंदाज के साथ बिहार बोर्ड Class 11th Hindi काव्यखंड का चैप्टर - 11 पृथ्वी का सम्पूर्ण भावार्थ, नरेश सक्सेना का जीवन परिचय और पृथ्वी का प्रश्न उत्तर देखने वाले हैं ,Bihar board Class 11th Hindi Chapter-11 Prithvi kabhi Naresh saksena ka sampurn bhavarth aur prashn Uttar 

In this post included :-

  1. पृथ्वी चैप्टर का संपूर्ण भावार्थ
  2. पृथ्वी चैप्टर के कवि नरेश सक्सेना का जीवन परिचय
  3. पृथ्वी चैप्टर के पद का शब्दार्थ
  4. पृथ्वी चैप्टर के अभ्यास प्रश्न उत्तर  

11. नरेश सक्सेना

  कवि-परिचय

जीवन-परिचय : कवि नरेश सक्सेना का जन्म 1939 ई. में मध्य प्रदेश के ग्वालियर में हुआ है। वे बीसवीं शदी के सातवें दशक में एक विश्वसनीय कवि के रूप में विख्यात हैं।

  • जिस कवि ने आजादी के 20 वर्ष के बाद का भारत देखा हो, उस कवि की कविताओं में कल्पना का अंश या मनोरंजन का अंश कभी आ ही नहीं सकता। पाकिस्तान का दो-दो बार हमला करना, चीन का भारत पर हमला करना, भुखमरी, अकाल जैसी विपत्तियों को देखने, भोगने वाले नरेश सक्सेना के मन में मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था उत्पन्न होती है। आरम्भिक दौर में नरेश सक्सेना काव्यान्दोलन से जुड़े। किन्तु समय की कटु कठोर सच्चाइयों ने इन्हें बौद्धिकता, वैचारिकता और संवेदनशीलता के साथ कविता रचने को बाध्य किया। इनकी लेखनी समकालीन घटनाओं पर खूब चली। कोई घटना इससे अनछुई नहीं रह सकी।

  • सक्सेना जी ने "मैं" को कभी भी अपने काव्य का उपजीव्य नहीं बनाया। ये हमेशा निवैयक्तिक और वस्तुपरक होकर, तटस्थ होकर लिखते हैं उन्हें तो कवि कर्म और उत्पाद के बीच सम्बन्ध पर भी संदेह है।

  • आज का जीवन कितना संघर्षपूर्ण तथा प्रतियोगितात्मक है, इसे नरेश सक्सेना ने स्वयं भोगा है। जल निगम के उपप्रबंधक विभिन्न पत्रिकाओं के सम्पादक और टेलीविजन रंगमंच के लेखक के रूप में चुनौतियों से उनका दो-चार होना आज भी जारी है। फिर भी उनका हृदय कटु भावनाओं से नहीं बल्कि मानवीय संवेदनाओं से भरा पड़ा है। वस्तुतः ये दृष्टिकोण के विस्तार और संवेदनाओं की प्रगाढ़ता के भीतर ही युगधर्म के प्रचलित सरोकारों यथा, राजनीति, सामाजिकता एवं प्रतिबद्धताओं और उनके वास्तविक अर्थपूर्ण रुख, रुझानों को अपना बनाते चलते हैं। नरेश सक्सेना का काव्य-संसार ठोस साक्ष्यों पर आधारित है।

  • सक्सेना भी बिम्बों के जनक हैं। मुक्त छंद का प्रयोग तो आजादी के बाद का कविता धर्म ही बन गया। लेकिन मुक्त छंद में भी बातें प्रभावशाली बन जाती हैं और मारक क्षमता प्राप्त कर लेती हैं। सक्सेना जी का मुक्त छंद भी हमें एक नयी वैचारिक भूमि उपलब्ध कराता hat 8 1 वास्तव में जीवन की समकालीन समस्याओं और संघर्षो से नरेश का गहरा लगाव स्पष्ट होता है। ऐसा करते हुए उनके संवेदनशील दृष्टिकोण का मानवीय पक्ष उजागर होता है।


पृथ्वी

 (1)

पृथ्वी तुम घूमती हो
तो घूमती चली जाती हो,
अपने केंद्र पर घूमने के साथ ही 
एक ओर केंद्र के चारों ओर घूमते हुए लगातार
क्या तुम्हें चक्कर नहीं आते
अपने आधे हिस्से में अंधेरा
और आधे में उजाला लिए 
रात को दिन और दिन को रात करते 
कभी-कभी काँपती हो 
तो लगता है नष्ट कर दोगी अपना सारा घरबार 
अपनी गृहस्थी के पेड़ पर्वत शहर नदी गाँव टीले 
सभी कुछ नष्ट कर दोगी

पृथ्वी कविता का शब्दार्थ : गृहस्थी - गृह-व्यवस्था ।

प्रसंग : - प्रस्तुत पद्यांश नरेश सक्सेना रचित कविता 'पृथ्वी' से अवतरित है। इस कविता में पृथ्वी के ऊपर कही गई विभिन्न बातों का ठोस साक्ष्य वर्णित है। इसमें पृथ्वी को सम्बोधित करते हुए कवि कहता है-

व्याख्या - हे पृथ्वी! तुम घूमती हो तो लगातार बिना थके, बिना रुके अपने केन्द्र पर चक्कर लगाती रहती हो। एक ही साथ दो अलग प्रकार के घुमावों के कारण क्या तुम्हें चक्कर नहीं आते? क्या तुम्हारी आँखों के आगे कभी अंधेरा नहीं छाता ? तुम सदा ही विपरीत प्रकृतियों को साथ लेकर चलती हो। सूर्य के कारण तुम्हारे आधे भार में उजाला और आधे में तुम्हारी बनावट के कारण अँधेरा छाया रहता है। तुम रात-दिन एक करते हुए रात को दिन, दिन को रात में बदलती रहती हो, तुम हमेशा परिश्रम करती रहती हो।

हाँ, कभी-कभी तुम काँपती अवश्य हो, जब कभी तुम्हारी आन्तरिक बनावट में कोई विक्षोभ उत्पन्न होता है तब ऐसा लगता है कि सम्पूर्ण पृथ्वी ही नष्ट हो जाएगी। लेकिन तुमने तो अपनी गृहस्थी को सजाने के लिए पर्वत, नदी, पेड़, गाँव, टीले आदि की व्यवस्था की है। ऐसा लगता है कि तुम अति क्रोध में भरकर भूकम्प की स्थिति में इन्हें नष्ट करने पर उतारू हो गई हो।



(2) 


पृथ्वी क्या तुम कोई स्त्री हो
तुम्हारी सतह पर कितना जल है,
तुम्हारी सतह के नीचे भी जल ही है।
लेकिन तुम्हारे गर्भ में
गर्भ के केंद्र में तो अग्नि है
सिर्फ अग्नि
पृथ्वी क्या तुम कोई स्त्री हो
कितने ताप कितने दबाव और कितनी आर्द्रता से 
अपने कोयलों को हीरों में बदल देती हो 
किन प्रक्रियाओं से गुजर कर
कितने चुपचाप
रत्नों से ज्यादा रत्नों के रहस्यों से 
भरा है तुम्हारा हृदय
पृथ्वी क्या तुम कोई स्त्री हो
तुम घूमती हो
तो घूमती चली जाती हो।

शब्दार्थ : रहस्य - भेद । सतह - ऊपरी तल । आर्द्रता - नमी।

प्रसंग पूर्ववत्।

व्याख्या: कवि पृथ्वी को संबोधित करते हुए कहता है कि हे पृथ्वी क्या तुम भी कोई स्त्री हो? क्योंकि तुम्हारा स्वभाव एक स्त्री से मिलता-जुलता है। स्त्री भी जीवन भर संघर्ष करती है। जब कभी वह क्रोधित हो जाती है तो अपने करने को तत्पर हो जाती है।

कवि पृथ्वी से कहता है कि जल जीवन का आवश्यक तत्व है, जो पृथ्वी की सतह पर ही उपलब्ध है और जहा प्रदान करता है लेकिन पृथ्वी के केन्द्र में तो स्त्री की भाँति केवल आग ही आग है। क्या तुम्हें भी स्त्री की भाँति सदियों से तिरस्कृत होना पड़ रहा है जो क्रोधित होकर अग्नि बन गया है?

कवि कहता है-हे पृथ्वी! तुम तो एक स्त्री की भाँति तपस्या करने वाली हो। जिस प्रकार एक स्त्री कठोर अनुशासन द्वारा अपने बच्चे को सर्वगुण सम्पन्न बना देती है। ठीक वैसे ही तुम भी अपने ताप, दाब तथा जल तत्व के आईगुन के सहयोग से कोयले को भी हीरा बना देती हो।

कवि आगे कहता है - हे पृथ्वी! तुम्हारे गर्भ में केवल हीरा ही नहीं बल्कि कई अमूल्य धातु और रत्न संरक्षित है। उनका रहस्यमय संसार तुम्हारे हृदय की रहस्यमयता को भी कई गुणा बढ़ा देता है, ठीक वैसे ही जैसे कोई एक स्त्री के असली तथा सम्पूर्ण भावों को कई लाख कोशिश करके भी नहीं पकड़ सकता।

कवि कहता है-हे पृथ्वी! तुम अपनी इस अनंत रहस्यमयता के साथ एक स्त्री की भाँति लगातार चलायमान हो।



अभ्यास 


प्रश्न 1. कवि को पृथ्वी स्त्री की तरह क्यों लगती है?
उत्तर- 1. प्रस्तुत कविता में कवि को पृथ्वी एक स्त्री की तरह लगती है। एक स्त्री अपने जीवनकाल में कई भूमिकाओं को निर्वाह करते हुए अपने ही केन्द्र पर स्थित रहती है। ठीक वैसे ही पृथ्वी भी अपने ही चारों तरफ स्वयं चक्कर काटती रहती है। 
2. स्त्री क्षमा, दया, ममता, प्यार तथा त्याग की प्रतिमूर्ति होती है और अपना सर्वस्व दूसरों पर लुटाती रहती है। वह हमेशा बुरे को अच्छा, गुणी को और अधिक गुणी बनाने का प्रयत्न करती रहती है।

3. ऐसा करते समय उसे कई बार उपेक्षा भी झेलनी पड़ती है, जिससे वह अक्सर क्रोधित हो उठती है। कभी-कभी यह अपना संतुलन खो बैठती है और उसके भीतर विद्रोह की ज्वाला धधकने लगती है। लेकिन दूसरे ही क्षण वह अपना क्रोध शांत कर लेती है जिससे समस्त संसार चकित होता है।

4. ऐसा ही सब कुछ पृथ्वी भी करती है। इसीलिए कवि को पृथ्वी स्त्री की तरह लगती है। 

प्रश्न 2. पृथ्वी के काँपने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- पृथ्वी के भीतर की बनावट परतदार है। हवा, गनी और भूगर्भ ताप के प्रभाव से परतों का स्थान प्रायः बदलता रहता है। जिसके कारण प्रतिदिन दुनिया के किसी-न-किसी भाग में भूकंप के झटके आते रहते हैं। लेकिन जब यह प्रक्रिया बहुत तीव्रता से होती है, तब भयंकर तबाही वाला भूकंप आता है इसी भूकंप को कवि ने पृथ्वी का काँपना कहा है। 

प्रश्न 3. पृथ्वी की सतह पर जल है और सतह के नीचे लेकिन उसके गर्भ के केन्द्र में अग्नि है। स्त्री के संदर्भ में
क्या आशय होगा?

उत्तर - प्रस्तुत कविता में कवि ने नारी की सहनशीलता और उग्रता को पृथ्वी के माध्यम से विश्लेषित एवं रेखांकित किया है। जिस प्रकार पृथ्वी की सतह के ऊपर और सतह के नीचे जल है, ठीक उसी प्रकार नारी का हृदय दया, करुणा, सहनशीलता और ममता का अथाह सागर है। पृथ्वी के गर्भ के केन्द्र में अग्नि है, जो प्रायः ज्वालामुखी के रूप में विस्फोटित होती है। नारी भी जब क्रोधाग्नि से आवेगित होती है, तो गृहस्थी रूपी गाड़ी चरमरा जाती है। इस कविता में कवि ने नारी के गौरव का अंकन उसके कर्ममय जीवन के आँगन में उम्द रूप में प्रतिबिंबित किया है। पृथ्वी और नारी के रहस्यों का अन्वेषण-कार्य तकनीकी दृष्टिकोण से कर कवि ने दोनों की समानता को उद्घाटित किया है,




प्रश्न 4. पृथ्वी कोयतों को हीरों में बदल देती है क्या इसका कोई लक्ष्यार्थ है? यदि हाँ तो स्पष्ट करें। 
उत्तर- कोयला और हीरा कार्बन के दो अपरूप हैं। जब पृथ्वी के गर्भ में प्राकृतिक वानस्पतिक जीवाश्म ऑक्सीजन की कल्पता तथा भूगर्भीय दबाव के कारण दब जाते हैं तो कोयला बन जाता है। यदि यही जीवाश्म बहुत अधिक ताप और दाव झेलता है तो हीरा जैसा कीमती पत्थर बन जाता है।

इस पंक्ति का लक्ष्यार्थ यह है कि नारी अपने त्याग, बलिदान और अपनी तपस्या की अग्नि में साधारण पात्र को भी सुपात्र बना देती है। संसार में जितनी भी महान विभूतियाँ हुई हैं उन सबका निर्माण माँ रूपी धधकती मठ्ठी में ही हुआ है। स्त्रियों ने सारा दुःख पीकर एक से बढ़कर एक नररत्न और नरपुंग उत्पन्न किये हैं। कोयले को हीरा बनाने की साधनात्मक कला केवल स्त्रियों को ही आती है।

प्रश्न 5. 'रत्नों से ज्यादा रत्नों के रहस्यों से भरा है तुम्हारा हृदय'-कवि ने इस पंक्ति के माध्यम से क्या कहना चाहा है?

उत्तर- प्रस्तुत कविता 'पृथ्वी' में कवि 'रत्नों से ज्यादा रत्नों के रहस्यों से भरा है तुम्हारा हृदय द्वारा पृथ्वी तथा स्त्री दोनों के गुणों के साम्य का बखान करता है। कवि कहता है पृथ्वी को रत्नगर्भा कहा जाता है क्योंकि पृथ्वी से कई धातुएँ प्राप्त होती हैं। आज तक वैज्ञानिक पृथ्वी में छिपी अनेक धातुओं, खनिजों, तेल, कोयला, गैस आदि के कई भंडारों का पता लगा चुके हैं परन्तु यह तो अत्यन्त न्यून हैं।

न जाने पृथ्वी के भीतर और क्या-क्या भरा पड़ा हैं? इसके रहस्य को आज तक कोई नहीं जान पाया। ठीक उसी प्रकार स्त्री के हृदय में भी न जाने कितने रहस्य भरे होते हैं, जिसका भेद कोई भी नहीं पा सकता। पृथ्वी की भाँति स्त्रो के हृदय में भी मंगलकारी तथा विनाशकारी रहस्य भरे पड़े हैं जिन्हें कोई नहीं जानता।

प्रश्न 6. 'तुम घूमती हो तो घूमती चली जाती हो।' यहाँ घूमना का क्या अर्थ है? 
उत्तर- प्रस्तुत कविता में कवि नरेश सक्सेना कहते हैं कि पृथ्वी अपनी धुरी के चारों और चक्कर काटती रहती है तथा सूर्य की परिक्रमा भी करती रहती है। उसका यह भ्रमण लगातार चलता ही रहता है, इसे कोई नहीं रोक पाया। इसी के घूमने से दिन और रात बनते हैं।

परिणामस्वरूप पृथ्वी की तरह एक स्त्री भी निरन्तर अपनी धुरी के इर्द-गिर्द ही घूमती रहती है। अपनी धुरी के इर्द-गिर्द घूमते हुए, वह अपनी विभिन्न पारिवारिक भूमिकाओं जैसे पनि, पुत्री, माता को निरन्तर निभाती चलती है। उसका घूमना ही उसके अस्तित्व की पहचान होता है पृथ्वी और स्त्री का निरंतर घूमना ही जीवन है।

अगर पृथ्वी का घूमना रुक जाए तो सृष्टि की समाप्ति निश्चित है। इसी प्रकार यदि स्त्री अपनी गतिशीलता को छोड़ दे तो विनाश निश्चित है।

प्रश्न 7. क्या यह कविता पृथ्वी और स्त्री को अक्स-बर-अक्स कर देखने में सफल रही है? इस कविता का मूल्यांकन अपने शब्दों में करें। 
उत्तर- कवि नरेश सक्सेना कहते हैं कि जितने भी गुण-अवगुण पृथ्वी में हैं, उतने ही गुण एक आम स्त्री में भी हैं। पृथ्वी व स्त्री दोनों ही इन्हें धारण करती हैं इसीलिए पृथ्वी को धरती तथा स्त्री को धातृ कहा गया है।

पृथ्वी भी विभिन्न रत्नों से भरी पड़ी है। वह अनेक बहुमूल्य रत्न संसार को देती है, इसी कारण स्त्री भी बहुमूल्य रत्न उपजाती है। पृथ्वी व स्त्री दोनों ही गतिशील है। यदि दोनों में से एक भी रुक जाए तो सृष्टि का विनाश निश्चित है। निश्चय ही पृथ्वी तथा स्त्री एक-दूसरे के बिम्ब-प्रतिविम्ब ही हैं।

इस कविता में कवि ने एक तीर से दो निशाने भेदे हैं। उसने पृथ्वी पर कविता लिखकर स्त्री को भी अपना विषय बनाया

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