आज इस पोस्ट में हम आपको बिहार बोर्ड Class 11th Hindi काव्यखंड का दूसरा चैप्टर कबीर के पद का सम्पूर्ण भावार्थ, कबीर का जीवन परिचय और कबीर के पद का प्रश्न उत्तर भी बताने वाले हैं |
ऐसे थे कबीर / सिर से पैर तक मस्त-मौला, स्वभाव से फक्कड़, आदत से अक्खड़, भक्त के सामने निरीह, भेषधारी के आगे प्रचंड, दिल के साफ, दिमाग के दुरुस्त, भीतर से कोमल, बाहर से कठोर, जन्म से अस्पृश्य, कर्म से वंदनीय। वे जो कुछ कहते थे अनुभव के आधार पर कहते थे, इसीलिए उनकी उक्तियाँ बेधनेवाली और व्यंग्य चोट करने वाले होते थे।
भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया बन गया है तो सीधे-सीधे, नहीं तो दरेरा देकर। भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार-सी नजर आती है। उसमें मानो ऐसी हिम्मत ही नहीं है कि इस लापरवा फक्कड़ की किसी फरमाइश को नाहीं कर सके।" (कबीर) - आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
2. कबीर के पद।
कवि-परिचय
कबीरदास जीवन परिचय -- संत कवि कबीरदास का जन्म 1399 ई. में काशी में हुआ। उनके जन्म के बारे में ऐसी मान्यता है कि उन्हें एक विधवा ब्राह्मणी ने जन्म दिया और लोकलाज के भय से लहरतारा नामक तालाब के किनारे छोड़ दिया। नीरू और नीमा नामक जुलाहा दम्पत्ति ने उनका पालन-पोषण किया। उन्होंने रामानन्द नाम के गुरु से निर्गुण भक्ति की दीक्षा प्राप्त की। साधु-संगति और स्वानुभव से उन्होंने पर्याप्त ज्ञान भाषित किया। कमाल और कमाली नाम की उनकी दो सन्तानें भी थीं। वे लगभग 120 वर्ष की दीर्घायु में 1518 ई. में इहलोक से विदा हुए।
काव्यगत रचनाएँ: कबीर की रचनाएँ कबीर ग्रंथावली में एकत्र हैं। कबीर अनपढ़ थे, उन्होंने स्वयं कुछ नहीं लिखा। उनकी वाणी से जो भी अमृतमय संगीत निकला, उसे उनके शिष्यों ने लिपिबद्ध कर दिया। उनके तीन काव्य संग्रह हैं-बीजक, रमैनी और सबद सिक्ख धर्म के गुरु-ग्रंथ में भी उनकी वाणी को स्थान मिला है।
भाषा-शैली : आचार्य द्विवेदी ने कबीर की भाषा-शैली के बारे में लिखा है-कबीर वाणी के डिक्टेटर थे। उनका अपनी भाषा पर जबरदस्त अधिकार था। कबीर की भाषा अनपढ़ होते हुए भी अपने हृदयस्थ भावों को व्यक्त करने में पूर्णतया समर्थ है। उनकी भाषा में पंजाबी, राजस्थानी, अरबी-फारसी का अनूठा सम्मिश्रण देखने को मिलता है। इसलिए उसे शुक्ल जी ने सघुक्कड़ी भाषा कहा है। अतः कबीरदास हिन्दी के एक अक्खड़, समाज-सुधारक तथा लोकचेतना के कवि थे।
काव्यगत विशेषताएँ : कबीर में भरपूर आत्मविश्वास था। उन्होंने जो भी लिखा वह अपने अनुभव के बल पर लिखा। तत्कालीन समाज धार्मिक रूढ़ियों और अंधविश्वासों से ग्रस्त था। इसीलिए उन्होंने अपने काव्य में समाज-सुधार की आवाज उठाई।
कबीर मूलतः सन्त थे। निराकार ईश्वर में उनकी आस्था थी। उनका मानना था कि प्रभु की प्राप्ति केवल ज्ञान और विशुद्ध प्रेम द्वारा ही हो सकती है। गुरु-शरण और नाम-स्मरण दोनों ही ईश्वर-आराधना के लिए अनिवार्य हैं। उन्होंने गुरु को भगवान से भी बढ़कर माना है। उन्होंने नारी और माया दोनों का पुरजोर विरोध किया, क्योंकि ये दोनों साधक को ईश्वर से विमुख करते हैं।
कबीर प्रबल विद्रोही तथा अक्खड़ स्वभाव के थे। किसी पाखण्डी व धूर्त को देखते ही वे रौद्र रूप धारण कर लेते थे। उन्होंने भूर्तिपूजा, तिलक, माला, सम्प्रदायवाद आदि का प्रखर विरोध किया।
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पद -1
संतो देखत जग बौराना।
साँच कहौं तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना ।।
नेमी देखा धरमी देखा, प्रात करैं असनाना।
आतम मारि पखानहि पूजै, उनमें कछु नहिं ज्ञाना ।।
बहुतक देखा पीर औलिया, पढ़ैं कितेब कुराना ।।
कै मुरीद तदबीर बतावें, उनमें उहे जो ज्ञाना ।।
आसन मारि डिंभ परि बैठे, मन में बहुत गुमाना।
पीतर पाथर पूजन लागे, तीरथ गर्व भुलाना ।।
टोपी पहिरे माला पहिरे, छाप तिलक अनुमाना।
साखी सब्दहि गावत भूले, आतम खबरि न जाना ।।
हिंदु कहे मोहि राम पियारा, तुर्क कहै रहिमाना ।
आपस में दोउ लरि लरि मूए, मर्म न काहू जाना।।
घर घर मंतर देत फिरत हैं, महिमा के अभिमाना।
गुरु के सहित सिख्य सब बूड़े, अंत काल पछिताना ।।
कहै कबीर सुनो हो संतो, ई सब धर्म भुलाना।
केतिक कहौं कहा नहिं माने, सहजे सहज समाना।।
कबीर के पहला पद का शब्दार्थ निम्नलिखित है,
शब्दार्थ --- जग- संसार ,बौराना -पागल हो गया। पतियाना - विश्वास करना। धावै -दौड़ | नेमी - नियमों का पालन करने वाला , आतम - आत्मा , धरमो - धर्म का ढोंग करने वाला, असनाना - स्नान/ नहाना, बहुतक - बहुत से। पखानहि - पत्थरों को ,पीर ओलिया - संत, धर्मगुरु, ज्ञानी, कितेब - ग्रंथ , मुरीद - शिष्य, चेला। आसन मारि - समाधि अथवा ध्यान की मुद्रा में बैठना। तदबीर - उपाय। डिंम धरि - आडंबर करके। गुमाना - अहंकार | छाप तिलक अनुमाना - माथे पर तिलक और छापा लगाना , पाथर - पत्थर की मूर्ति , साखी - दोहा, आतम खबरि - आत्मा का ज्ञान। सब्दहि - सबद को, पद को, मोहि - मुझे। रहिमाना - रहम करने वाला, दयालु , मर्म - भेद लरि लरि मूए - लड़-लड़ कर मर गए। काहू- - किसी ने , मंतर - कोई गुप्त शब्द या वाक्य बताना , । सहजै - सहज रूप से। केतिक- कहाँ- कहाँ तक कहूँ। समाना - लीन होना।
कबीर के पहला पद का प्रसंग निम्नलिखित है,
प्रसंग प्रस्तुत पद 'संतो देखत जग बौराना' हिंदी के अमर संत कवि कबीरदास द्वारा रचित है। इस पद में कबीर का अक्खड़, फक्कड़ तथा समाज सुधारक रूप प्रकट हुआ है। उन्हें धर्म साधना में आपसी भेदभाव, झूठ दिखाया और पाखंड सहन नहीं था। पाखंडी ढोंगियों को देखने से वे क्रोधित हो उठते थे। ऐसे दोगियों पर व्यंग्य करते हुए संत कबीरदास कहते हैं-
व्याख्या - हे साधको देखो, यह सारा संसार पागल हो गया है। अगर उनके सामने सच्ची बात भी कही जाए, तो वे नाराज होकर मारने दौड़ते हैं और असत्य बातों पर सरलता से विश्वास करते हैं। कबीरदास कहते हैं कि जब भी मैं इन सांसारिक जीवों को सत्य के बारे में बताना चाहता हूँ ये मुझे उल्टा-सीधा कहते हैं, मुझे मारने दौड़ते हैं और जो कुछ इनके इर्द-गिर्द माया प्रपंच है। उसे ये सत्य मान बैठे हैं।
आगे पाखण्डों का खण्डन करते हुए कबीरदास जी कहते हैं कि मुझे नियम, धर्म, दिनचर्या आदि का कठोरता से पालन करने वाले कई संत (धर्मात्मा) मिले। वे रोज सुबह स्वयं को शुद्ध करने के लिए स्नान भी करते हैं। लेकिन अपने अंदर छिपे परमात्मा को छोड़कर वे व्यर्थ के व्रतों और नियमों में उलझते हैं और पत्थरों की पूजा करते हैं, उनका ज्ञान एकदम थोथा और निस्सार है। कबीरदास हिंदू-मुसलमान दोनों को ही आड़े हाथों लेते हुए कहते हैं कि मैंने ऐसे कई पीर पैगंबर देखे हैं जो अपने शिष्यों (मुरीदों) को धार्मिक ग्रंथ, कुरान आदि पढ़ाते हैं, समझाते हैं और स्वयं भी पढ़ते हैं। ये अपने शिष्य बनाकर मुक्ति के लिए तरह-तरह के उपाय बताते हैं। वास्तव में ऐसे पाखंडियों ने भगवान को जाना ही नहीं है। जो साधक समाधि की मुद्रा में आसन लगाकर बैठा है और जिसे साधक होने का अहंकार है, जो पत्थर की मूर्तियों और पीपल के वृक्ष की पूजा कर रहा है, व्रतों और तीर्थ का पालन कर रहा है यह सब छल तथा भुलावा है, साधना के नाम पर लोगों को भटकाना है। उनके गले में पड़ी हुई माला, तिलक छापा,आदि को देखकर ही आसानी से उनके पाखण्ड का अंदाजा लगाया जा सकता है। वे लोगों को प्रभु-ज्ञान देने के लिए सबद और साखी गाते फिरते हैं, लेकिन वास्तव में उन्हें स्वयं परम तत्त्व का ज्ञान नहीं है। हिंदू लोग कहते हैं कि उन्हें राम प्रिय है।
मुसलमान, रहमान को प्रिय मानते हैं। इस प्रकार राम और रहीम के नाम पर हिंदू और मुसलमान आपस में लड़ते-झगड़ते रहते है। वास्तविकता यह है कि ईश्वर को न तो हिंदू ने समझा है, और न ही मुसलमान ने ईश्वर के नाम पर लड़ने वाला व्यक्ति ज्ञानी और मूर्ख है। ऐसे पाखण्डी लोग घर-घर जाकर लोगों को गुरु-मंत्र बौट रहे हैं, यह सब अपनी महिमा बढ़ाने का फेर ही है। ऐसे पाखण्डी गुरु अपने अज्ञानी शिष्यों सहित भवसागर में डूब जाएँगे। परम ब्रह्म के बिना उन्हें अंत में केवल पछताना पड़ेगा। संत कबीरदास कहते हैं कि हे संतो, सुनो। ये सब पाखंडी भ्रम में भूले हुए हैं। इन्हें मैंने कितना समझाया, किंतु ये सब मानते ही नहीं। सच तो यही है कि ईश्वर हमें सहज साधना से ही मिल सकता है। संत जन सहज-स्वाभाविक प्रेम से ही उनमें लीन हो सकते हैं।
पद -2
हो बलिया कब देखोगी तोहि ।
अह निस आतुर दरसन कारनि, ऐसी व्यापै मोहि।।
नैन हमारे तुम्ह कूँ चाहें, रती न मानें हारि ।
बिरह अगिनि तन अधिक जरावे, ऐसी लेहु बिचारि ।।
सुनहु हमारी दादि गुसाई, अब जिल करहु बधीर ।
तुम्ह धीरज में आतुर स्वामी, काचे भाडे नीर ।।
बहुत दिनन के बिदुरे माघी, मन नहिं बाँधे धीर ।
देह छत तुम्ह मिलहु कृपा करि, आरतिवंत कबीर।।
कबीर के पहला पद का शब्दार्थ निम्नलिखित है,
शब्दार्थ : अह निस -- दिन-रात | कारनि - करने के लिए। ब्यापे - अनुभव। रती - तनिक ,चाहें -- चाहते हैं। ,जरावे - जलाती है। , दादि - विनती / स्तुति | गुसाई - मालिक। बधीर - बहरा, जो कम सुने या न सुने। अगिनी - आग | भाडै - बर्तन। माधो - भगवान , रहिमाना - दयालु , छताँ - रहते हुए। आरतिवंत - दुखी ,बलिया - प्रियतम।
कबीर के दूसरा पद का प्रसंग निम्नलिखित है,
• प्रस्तुत पद निर्गुणी संत कबीरदास द्वारा रचित है। उनके अनुसार इस संसार के रचयिता एक परमात्मा हैं, उसी से मिलने की उत्कट अभिलाषा यहाँ कवि कबीरदास जी ने व्यक्त की है।
व्याख्या: कबीर अपने प्रियतम (परमात्मा) से मिलने के लिए बहुत व्याकुल हैं। वे अपने प्रियतम से कहते हैं- हे भगवान, मैं कब तुम्हारे दर्शन कर पाऊँगा। मुझे ऐसा अनुभव होता है कि मैं दिन-रात तुम्हारे दर्शन के लिए व्याकुल हो एप हूँ। ये नयन तुम्हें देखने के लिए अत्यंत व्याकुल हो रहे हैं। अब ये तुम्हारे दर्शनों के बिना मानने वाले नहीं हैं अर्थात् ये नयन तुम्हें देखने के बाद ही धैर्य धारण करेंगे। कवि कहता है कि तुम्हारे बिना विरह की अग्नि मुझे जला रही है अर्थात् मेरी विरहारिन अत्यंत बढ़ चुकी है और यह मेरे शरीर को जलाए जा रही है। हे भगवान मेरी विनती सुन लीजिए और मुझे दर्शन दे दीजिए। बहरे बनने का प्रयत्न मत कीजिए। तुम्हारे दर्शन के बिना मुझे धैर्य नहीं आ रहा। जिस प्रकार कच्चे बर्तन में पानी डालने से ही यह टूट जाता है, उसी प्रकार मेरा शरीर भी कच्ची मिट्टी से बना हुआ है। अतः शीघ्र ही यह शरीर नष्ट हो जाएगा। तुमसे | दिमुड़े हुए बहुत दिन बीत चुके हैं, अब तो मेरा मन अत्यंत विचलित हो रहा है, अब मेरे विरह की कोई सीमा नहीं रही। जब तक मेरा शरीर जीवित है, इसी दुखी को आकर दर्शन दे दो। हे भगवान! मुझ पर केवल इतनी कृपा कीजिए, इस शरीर के रहते मुझे दर्शन दे दीजिए।
अभ्यास
प्रश्न 1. कबीर ने संसार को बौराया हुआ क्यों कहा है?
उत्तर- कबीर ने संसार को 'बौराया हुआ' इसलिए कहा है क्योंकि इस संसार के लोग सच को सहन नहीं कर पाते और न ही उस पर विश्वास करते हैं। उन्हें झूठ पर बहुत जल्दी विश्वास हो जाता है। कबीर संसार के लोगों को ईश्वर और धर्म के विषय में सत्य बातें बताते हैं। ये सब बातें परम्परागत ढंग से भिन्न हैं, इसलिए लोगों को अच्छी नहीं लगती। इसलिए कबीर ने संसार बौराया हुआ अर्थात् पागल कहा है।
प्रश्न १. 'साँच कहाँ तो मारन पाये, झूठे जग पतियाना'-कबीर ने यहाँ किस सच और झूठ की बात कही है?
उत्तर- 'साँच कही तो मारन घाये, झूठे जग पतियाना' पंक्ति में कबीर ने कहा है कि लोग झूठ और पाखण्ड को अधिक पसन्द करते हैं। वे असत्य व अज्ञान में जीना चाहते हैं। उन्हें सच कड़वा लगता है। वे परमात्मा को जानने का प्रयत्न नहीं करते बल्कि व्रत-नियम, स्नान-ध्यान, समाधि लगाना, कुरान पढ़ना, पत्थर पूजना, तीर्थ-व्रत करने का अनुगमन करते रहते हैं।
प्रश्न 3. कबीर के अनुसार कैसे गुरु-शिष्य अन्तकाल में पछताते है। ऐसा क्यों होता है?
उत्तर- कबीर के अनुसार इस संसार में दो प्रकार के गुरु और शिष्य हैं। प्रथम कोटि में सदगुरु और सद् शिष्य जाते हैं ये तत्वज्ञान होता है, जिन्हें जीव-ब्रह्म के सम्बन्ध का ज्ञान होता है, जो विवेकी होते हैं, ऐसे गुरु शिष्यों में सद् आधार भरते है इनका अन्तर-बाह्य सब एक समान होता है। गुरु-शिष्य की दूसरी कोटि है असद गुरु-और असद शिष्य की इस बारे में ने एक साखी में बताया है-
जाके गुरु अंधरा, घेता खरा निरंप,
अंधा-अधे ठेलिय, दोनों कृप पड़त
असद् अविवेकी तथा बनावटी गुरु सद्ग्रन्यों का केवल वाचन करते-कराते हैं, ग्रन्थों में निहित तथ्यों को अपने उतारते और उतरवाते नहीं हैं। समय रहते ये चेत नहीं पाते और अन्त में जब आत्मोद्धार के लिए समय नहीं बच पाता। बेचैन हो जाते हैं। लेकिन अब इनके पास पछतावे के अलावा कुछ बचता ही नहीं है।
प्रश्न 4. हिंदू कहे मोहि राम पियारा तुर्क के रहमाना। आपस में दोउ तरि तरि भूए मर्म न काहू जाना।। इन पंक्तियों का भावार्थ स्पष्ट करें।
उत्तर- प्रस्तुत पंक्तियों में कबीरदास जी कहते हैं कि हिंदू और मुसलमान परमात्मा को भूलकर आपसी भेदभाव जाति-यति ऊँच-नीच तथा धार्मिक पाखण्डों में लगे रहते हैं इससे उन्हें कभी भी आत्मबोध नहीं हो सकता। जो लोग हिंदू और मुसलमान नाम पर आपस में झगड़ते रहते हैं, वे अज्ञानी हैं वे परमात्मा को समझ ही नहीं पाए हैं। वास्तव में साम्प्रदायिक झगड़ों में उ वाले लोग परमात्मा को न समझ पाने के कारण ही आपस में लड़ते-झगड़ते रहते हैं।
प्रश्न 5. 'बहुत दिनन के बिदुरे माथी, मन नहिं बाँधे धीर।' यहाँ माघी किसके लिए प्रयुक्त है?
उत्तर - यहाँ माघी का प्रयोग भगवान के लिए या प्रियतम के लिए किया गया है।
प्रश्न 6. कबीर ने शरीर में प्राण रहते ही मिलने की बात क्यों कही है?
उत्तर- यों तो प्रेम में सम्पूर्ण शरीर, मन और प्राण आदि सभी सहभागी होते हैं लेकिन आँखों की विशेष भूमिका होती है।
विरह की अवस्था में आँखें लगातार प्रेमी की राह ताकती रहती हैं। विरही प्रेमी की व्याकुलता या अतृप्ति का ज्ञापन मुख्यतः से ही होता है, फिर इसका भी क्या भरोसा है कि मृत्यु के बाद पुनः यही शरीर प्राप्त हो। यदि प्रेम इसी जन्म और मनुष्य योरि में हुआ है, विरह की अग्नि में यदि यही शरीर, मन, प्राण जल रहे हैं तो फिर प्रेम को सार्थक्य भी केवल तभी प्राप्त होगा स शरीर में प्राण रहते इसी जन्म में प्रभु से मिलन हो जाए। विरह, मिलन में बदल जाए। इसीलिए कबीरदास ने शरीर में प्राण रहते ही मिलने की बात कही है।
प्रश्न 7. कबीर ईश्वर से मिलने को बहुत आतुर हैं क्यों
उत्तर- कबीर सच्चे संत थे। आत्मज्ञान करना उनका लक्ष्य था। कबीर की दृष्टि में परमात्मा मूल तत्व है। वहीं सारे में उसी तरह निवास करता है जैसे लकड़ी में अग्नि निवास करती है। जिस प्रकार दई लकड़ी को चीर तो सकता है परंतु उसमें निहित अग्नि को नष्ट नहीं कर सकता। ठीक उसी प्रकार मनुष्य का शरीर तो नश्वर है, उसके भीतर निवास करने वाला परमात्म ही अमर है। इसीलिए कबीरदास जी उस परमात्मा से मिलने को आतुर हैं।
प्रश्न 8. दूसरे पद के आधार पर कबीर की भक्ति भावना का वर्णन अपने शब्दों में करें।
उत्तर- 1. दूसरे पद में कबीर परमात्मा के दर्शनार्थ अत्यंत व्याकुल, बेचैन अधीर दिखाई देते हैं। कबीरदास की आँखें और केवल अपने प्रभु के दर्शन करना चाहती है
2. कबीर की आँखे तब तक हार मानने को तैयार नहीं जब तक वे प्रभु का दर्शन न कर लें।
प्रश्न 9. बलिया का प्रयोग सम्बोधन में हुआ है। इसका अर्थ क्या है?
उत्तर- कबीर के पद में बलिया सम्बोधन शब्द आया है जिसका कोशगत अर्थ 'बलवान' होता है। लेकिन हमें याद रखन चाहिए कि कबीर भाषा के डिक्टेटर थे। "बाल्हा" शब्द 'बलिया' का ही विकृत रूप है जिसका उपयोग कबीर ने एक और पा में किया है बाल्हा आओ हमारे गेह रे कबीर के अनुसार बलिया का अर्थ सर्वशक्ति सम्पन्न परमपुरुष, भर्तार और पति ही है।
प्रश्न 10. प्रथम पद में कबीर ने बायाचार के किन रूपों का जिक्र किया है? उन्हें अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर-समाज-सुधारक कबीर रचित प्रथम पद में हिन्दू-मुस्लिम दोनों ही सम्प्रदायों में व्याप्त निम्नलिखित आडम्बर पुर बाह्याचारों का उल्लेख हुआ है। प्रातःकाल प्रत्येक ऋतु और अवस्था में स्नान करना, पत्थर की पूजा करना, आसन मारकर बै और समाधि लगाना, तीर्थाटन करना, पितरों (पितृ) की पूजा, विशेष प्रकार की टोपी, पगड़ी धारण करना तरह-तरह के की माला (तुलसी, चन्दन, रुद्राक्ष और पत्थरों की मालाएँ) माये पर विभिन्न रंगों और रूपों में, आदि बाह्याडम्बर है। कबीर ने विरोध मुखर स्वर में किया है।
प्रश्न 11. कबीर धर्म-उपासना के आडंबर का विरोध करते हुए किसके ध्यान पर जोर देते हैं?
उत्तर- कबीर धर्म-उपासना के आडंबर का विरोध करते हुए एकमात्र परमात्मा के ध्यान पर जोर देते हैं। कबीर के अनुसार परमात्मा ही मूल तत्त्व है। वही सारे जगत में निवास करता है। सारा जगत एक ही परमात्मा रूपी ज्योति से प्रकाशित है। अतः कबीर परमात्मा के ध्यान पर जोर देते हैं।
प्रश्न 12. आपस में लड़ते मरते हिंदू और तुर्क को कवि किस मर्म पर ध्यान देने की सलाह देता है?
उत्तर- आपस में लड़ते-मरते हिंदू और तुर्कों को कवि कहता है कि अज्ञानियों की तरह लड़ने की आवश्यकता नहीं है। हम सब एक ही परमात्मा की संतान है। इस बात को समझकर उसी परमात्मा को प्राप्त करने का प्रयास करो। बाह्य आडम्बरों और धार्मिक पाखण्डों का पूर्णतया त्याग करो। जात-पाँत ऊँच-नीच के भेद को त्यागो। एक ही परमात्मा के अंश होने के कारण केवल उसी का ध्यान करो।
प्रश्न 13. 'सहजै सहज समाना' में सहज शब्द का प्रयोग दो बार हुआ है। इस प्रयोग की सार्थकता स्पष्ट करें।
उत्तर- 'सहजै सहज समाना' में सहज शब्द का दो बार प्रयोग हुआ है। यहाँ सहजै का अर्थ है-सहज रूप से। जबकि दूसरे सहज का अर्थ है - ईश्वर। यहाँ कबीरदास जी कहते हैं कि ईश्वर केवल सहज साधना से ही मिल सकता है। संत जन सहज-स्वाभाविक प्रेम से ही उसमें लीन हो सकते हैं। इस प्रकार दोनों बार तहज शब्द का भिन्न अर्थ होने के कारण प्रयोग अत्यंत सार्थक और सटीक है।
प्रश्न 14. कबीर ने धर्म किसे कहा है?
उत्तर - कबीर ने शंका या भेद को धर्म कहा है। कबीरदास जी कहते हैं कि सब पाखंडी भ्रम में भूले हुए हैं। वे नहीं जानते कि ईश्वर सहज साधना से ही मिल सकता है। इस संसार के लोग तो झूठ व सच के भ्रम में भटक रहे हैं। ये माया को सच मानते हैं और ईश्वर को झूठ। यही भ्रम लोगों में समाया हुआ है
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1 टिप्पणियाँ
Nice Explanation
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